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जैन दर्शन में काल का स्वरूप : १९ है। क्योंकि गणित के आधार पर एक सेकण्ड में ५८२५ आवलिकाएँ बीत जाती हैं एवं आवलिका में असंख्यात समय होते हैं।६५ दूसरी ओर एक मुहूर्त (४८ मिनट) में एक करोड़ सड़सठ लाख सत्तहत्तर हजार दो सौ सौलह आवलिकाएँ होती हैं।६६ वर्तमान एक समय का होता है तथा अतीत एवं अनागत अनन्त होता है।६७ पंचास्तिकाय तात्पर्यवृत्ति में प्रश्न उठाया गया है कि जितने काल में आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परमाणु गमन करता है उतने काल को समय कहते हैं तो एक समय में परमाणु चौदह रज्जु लोक तक गमन करे तो क्या जितने आकाश प्रदेश हैं, उतने ही समय मानने चाहिए? इस प्रश्न के समाधान में कहा गया है कि आगम में जो परमाणु की एक समय में एक आकाश प्रदेश से दूसरे आकाश प्रदेश में गमन की बात कही गई है वह मन्दगति से कही गई है तथा एक समय में परमाणु का चौदह रज्जु गमन शीघ्र गति की अपेक्षा से है।६८ विद्यानन्द सूरि ने पर्याय से एवं व्यवहार से काल को अनन्त समयक माना है तथा द्रव्य से एवं परमार्थत: उसे लोकाकाश प्रदेश परिमाणक स्वीकार किया है
सोऽनन्तसमयः प्रोक्तो भावतो व्यवहारतश्च।
द्रव्यतो जगदाकाशप्रदेशपरिमाणकः।।६९ पर्याय से काल अनन्त समय वाला है क्योंकि वह अनन्त पर्यायों की वर्तना का हेत है। एक-एक कालाणु शक्तिभेद से प्रतिक्षण अनन्त पर्यायों का वर्तन करता है। अनन्त शक्ति सम्पन्न काल व्यवहार से अनन्त समय वाला है। द्रव्य से वह लोकाकाश प्रदेश परिमाणक होने से असंख्येय ही होता है, आकाशादि के समान वह एक नहीं होता और न ही अनन्त होता है।७० काल का अनस्तिकायत्व : यहाँ पर यह भी स्पष्टतः जान लेना आवश्यक है कि अस्तिकाय और द्रव्य ये दोनों भिन्न पारिभाषिक शब्द हैं। 'अस्तिकाय' में अस्ति' शब्द त्रिकालवाची निपात है तथा 'काय' शब्द प्रदेशों के समूह का द्योतक है।७१ अर्थात् जो प्रदेश समूह कालत्रय में एक साथ रहते हैं वे अस्तिकाय कहलाते हैं। ‘अस्ति' शब्द का प्रदेश अर्थ भी किया जाता है। अत: प्रदेशों का समूह अस्तिकाय कहलाता है।७२ काल में प्रदेश प्रचय नहीं होता। प्रदेश प्रचय के अभाव में उसे अनस्तिकाय स्वीकार किया जाता है। अस्तिकाय एवं द्रव्य में क्या भेद है, यह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र से स्पष्ट होता है। वहाँ गौतम गणधर का भगवान् महावीर के साथ जो संवाद हुआ७३ उससे विदित होता है कि धर्मास्तिकाय का एक प्रदेश धर्मास्तिकाय नहीं होता। उसके दो, चार, पाँच,