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२४ : श्रमण, वर्ष ६२, अंक ४ / अक्टूबर-दिसम्बर २०११
गुजरात, वि० सं० १९६२ (१) अपरस्मिनपरं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि। - अध्याय २, आ० २, सूत्र ६, वैशेषिक सूत्र, पूर्वोक्त (२) कालः परापरव्यतिकरयोगपद्यचिरक्षिप्रप्रत्ययलिङ्गम् । - प्रशस्तपादभाष्य, द्रव्यनिरूपण, पूर्वोक्त तस्य गुणाः संख्यापरिमाणपृथक्त्वसंयोगविभागाः।- प्रशस्तपादभाष्य, पूर्वोक्त, पृष्ठ १५५ वैशेषिक सूत्र, ५.२.२६, पूर्वोक्त न्यायसूत्र, १.१.१६, पूर्वोक्त दिग्देशकालाकाशेष्वप्येवं प्रसङ्गः।- २.१.२३, न्यायसूत्र, पूर्वोक्त दिक्कालावाकाशादिभ्यः।- सूत्र १२, द्वितीय अध्याय, सांख्यप्रवचनभाष्य सांख्यकारिका में ९ तुष्टियों में चार आध्यात्मिक तुष्टियाँ हैं- प्रकृति, उपादान, काल और भाग्य। इनके अतिरिक्त पाँच तुष्टियाँ शब्दादि पाँच बाह्य
विषयों से विरत होने पर प्राप्त होती हैं। १६. योगभाष्य, योगसूत्र, ३.५२ पर, भारतीय विद्या प्रकाशन, वाराणसी,
१९९७ १७. योगवार्तिक, योगसूत्र, ३.५२ पर, पूर्वोक्त
नास्माकं वैशेषिकादिवदप्रत्यक्षः कालः, किन्तु प्रत्यक्ष एव, अस्मिन्क्षणे मयोपलब्ध इत्यनुभवात् ! अरूपस्याप्याकाशवत् प्रत्यक्षत्वं भविष्यति। शास्त्रदीपिका (युक्तिस्नेहप्रपूरणीसिद्धान्त चन्द्रिकाटीका)- अ.५, पाद १, अधि ५ सूत्र ५, दर्शन अने चिन्तन, पृ० १०२७ पर उद्धत
अतीन्द्रियत्वेन कर्यानुमेयत्वेन च।- प्रस्थानरत्नाकर, पृ० २०२ २०. वाक्यपदीय, कालसमुद्देश कारिका २ पद हेलाराजकृत प्रकाशव्याख्या
तत्त्वार्थसूत्र, ५.३८, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी, तृतीय संस्करण, १९९३ (क) धम्मो अहम्मो आगासं, कालो पुग्गलजंतवो एस लोगो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसीहिं।।- २८.७, उत्तराध्ययन सूत्र (ख) दण्वणामे दण्विहे पण्णत्ते, तंजहा- धम्मत्थिकाए, अधर्मात्थकाए,
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