Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi
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जैन दर्शन में काल का स्वरूपः २७
संग्रह, भारतीय जैन पब्लिकेशन, १९७५
लोकाकाशस्य यावन्तः प्रदेशास्तावन्तः कालाणवो निष्क्रियाः एकैकाकाशप्रदेशे एकैकवृत्त्या लोकं व्याप्य व्यवस्थिताः । उक्तंच लोगागास पदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्कक्का। रयणाणं रासी विव ते कालाणू मुणेयण्वा ।। -५८९ गोम्मटसार जीवकाण्ड, एवं द्रव्यसंग्रहवृत्ति, २२ तत्त्वार्थराजवार्तिक, ५.४०, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, १९५३ नियमसार,गाथा ३४, दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, वि०नि० २५११ तत्त्वार्थसूत्र, ५.४०, पूर्वोक्त
व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, श्री आगम प्रकाशन समिति, व्यावर (राज०), १९५७ एगा कोडी सतसट्ठि लक्खा सत्तहुत्तरि सहस्सा य
दो य सया सोलहिया आवलिया इग मुहुतम्मि | |- नवतत्त्वप्रकरण, सागर प्रेस, मुंबई, वि० सं० १९५४
तत्त्वार्थभाष्य, ५.४०, पूर्वोक्त
पंचास्तिकायसंग्रह तात्पर्य वृत्ति, २५ एवं द्रव्यसंग्रहटीका, २२ (असंख्यात कोटाकोटि योजन का एक रज्जु होता है ।)
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ५. ३९, पूर्वोक्त
तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, ५. ३९ पर वृत्ति
अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना। अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति अस्तिकायः।- अभयदेवसूरि, अभिधान राजेन्द्र कोश में उद्धृत
निर्णय
अस्तिशब्देन प्रदेशप्रदेशाः कवचिदुच्यन्ते, ततश्च तेषां वा कायाः अस्तिकाया:वही, अभिधान राजेन्द्रकोश में उद्धृत
व्याख्याप्रज्ञाप्तिसूत्र, शतक २, उद्देश्क १०, सूत्र ७ - ८, पूर्वोक्त
द्विविधः कालः परमार्थकालः व्यवहारकालश्चेति । - ५.२२, तत्त्वार्थवार्तिक,
पूर्वोक्त
(१) स्थानांगसूत्र, तीन स्थान, चतुर्थ उद्देशक, कालसूत्र (२) षट्खण्डागम, जीवस्थान १.५.१

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