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जैन दर्शन में काल का स्वरूप : २१ ही द्रव्यकाल है। यह सादि-सान्त, सादि अनन्त, अनादि- सान्त एवं अनादि अनन्त के भेद से चार प्रकार का है। चौथा अद्धाकाल है। यह अढ़ाईद्वीप (जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड एवं अर्द्ध पुष्करद्वीप) क्षेत्र में सूर्य, चन्द्र आदि ग्रहों-नक्षत्रों की गतिक्रिया से उत्पन्न होता है।
सूर्यादिक्रियया व्यक्तीकृतो नृक्षेत्रगोचरः।।
गोदोहादिक्रिया नियंपेक्षोऽद्धाकाल उच्यते।। अद्धाकाल के ही भेद हैं- समय, आवलिका, मुहूर्त आदि। यह अद्धाकाल जब जीवों के आयुष्य मात्र का कथन करता है, तो उसे यथायुष्ककाल कहा जाता है।७९ नारकी, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव जितने आयुष्कर्म का उपार्जन कर उसका जीवनकाल में अनुभव करते हैं, वह यथायुष्ककाल है। उपक्रमकाल सामाचारी उपक्रम और यथायुष्क उपक्रम के भेद से दो प्रकार का होता है। इसमें कर्मपुद्गलों को अपने उदयकाल से पूर्व उदय में लाकर भोगा जाता है। विशिष्ट स्थिति से युक्त क्षेत्र से काल का बोध करना देशकाल है। मरण का समय 'कालकाल' है। काल का निश्चित माप निर्धारित कर गणना करना प्रमाणकाल है। यह अद्धाकाल का भी भेद है।८० स्थानाङ्गसूत्र की टीका में स्पष्ट किया गया है कि जिससे सौ वर्ष, पल्योपम आदि प्रमाण मापा जाता है वह प्रमाण काल है।८१ श्यामवर्ण को वर्णकाल माना गया है तथा औदयिकादि पाँच भावों की सादि, सान्त आदि विभागों के साथ जो स्थिति बनती है उसे 'भावकाल' कहा गया है। पुद्गल परावर्तन : इस विषय के विवेचन से सम्बद्ध दो पाण्डुलिपियों का अवलोकन किया गया है।८२ पुद्गल परावर्तन विचार विषयक पाण्डुलिपि से स्पष्ट होता है कि काल को मापने की यह सबसे बड़ी इकाई है, जिसमें अनन्त उत्सर्पिणी एवं अनन्त अवसर्पिणी युक्त कालचक्रों का अन्तर्भाव हो जाता है। जैन दर्शन में व्यवहार काल को संख्यात, असंख्यात और अनन्त के भेद से समझा जाता है। समय, आवलिका, मुहूर्त, अहोरात्र, ऋतु, अयन, संवत्सर से लेकर शीर्ष प्रहेलिका (१९४ अंक) तक के काल की गणना संख्यात काल में होती है। इसके अनन्तर पल्योपम एवं सागरोपम की अवधारणा दी गई है। पल्योपम एवं सागरोपम को उपमा से समझाया गया है। उसे अंकों से वर्षगणना करके समझाना सम्भव नहीं है। एक ऐसा पल्य- जो एक योजन लम्बा, एक योजन चौड़ा एवं एक योजन गहरा