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जैन दर्शन में काल का स्वरूप : ११ सांख्यदर्शन के २५ तत्त्वों में कहीं भी काल का उल्लेख नहीं आया है, तथापि सांख्यप्रवचनभाष्य के द्वितीय अध्याय में उल्लेख प्राप्त होता है कि दिशा और काल आकाश के ही स्वरूप हैं।१४ ये दोनों आकाश प्रकृति के गुण विशेष हैं। आकाश के विभु होने के कारण दिक् और काल भी विभु हैं। जो दिक्-काल आदि के खण्ड प्राप्त होते हैं वे उपाधि संयोग आदि से आकाश से उत्पन्न माने गये हैं। इस प्रकार सांख्यदर्शन में प्रकारान्तर से काल को अंगीकार किया गया है तथा उसके विभु और खण्ड दोनों स्वरूप स्वीकार किये गए हैं। युक्तिदीपिकाकार ने उपादान का सामर्थ्य होने पर भी काल की अपेक्षा को अंगीकार किया है। सांख्य दर्शन में काल को तृतीय तुष्टि के रूप में भी प्रतिपादित किया गया है।१५ योग दर्शन में व्यासभाष्य के अन्तर्गत काल का विवेचन क्षण एवं क्रम की व्याख्या करते हुए प्राप्त होता है। क्षण को परिभाषित करते हुए व्यास कहते हैं कि एक परमाणु पूर्व स्थान को छोड़कर उत्तर स्थान को जितने समय में प्राप्त होता है वह काल 'क्षण' कहलाता है। इस क्षण के प्रवाह का विच्छेद न होना ही क्रम कहलाता है। क्षण वास्तविक है तथा क्रम का आधार है। क्रम अवास्तविक है, क्योंकि दो क्षण कभी भी साथ नहीं रहते हैं। पहले वाले क्षण के अनन्तर दूसरे क्षण का होना ही क्रम कहलाता है, इसलिए वर्तमान एक क्षण ही वास्तविक हैं पूर्वोत्तर क्षण नहीं। मुहूर्त, अहोरात्र आदि जो क्षण-संमाहार रूप व्यवहार है, वह बुद्धि कल्पित है, वास्तविक नहीं।१६ काल और दिक् को सांख्यदर्शन की भाँति योग दार्शनिक विज्ञान भिक्षु ने आकाश से ही उत्पन्न स्वीकार किया है।१७ मीमांसा दर्शन में काल का स्वरूप वैशेषिक दर्शन के ही समान माना गया है। पार्थसारथि मिश्र की शास्त्रदीपिका टीका के व्याख्याकार पंडित रामकृष्ण का मंतव्य है कि वैशेषिक जहाँ काल को अप्रत्यक्ष मानते हैं, वहाँ मीमांसक मत में वह प्रत्यक्ष है।८ अद्वैत वेदान्त दर्शन में व्यावहारिक रूप से काल को स्वीकार किया गया है। वेदान्त परिभाषा में नैमित्तिक प्रलय में काल को निमित्त माना गया है। शुद्धाद्वैत दर्शन में काल को अतीन्द्रिय होने से कार्य से अनुमित स्वीकार किया गया है।१९ बौद्धदर्शन में भी भूत, भविष्य एवं वर्तमान के रूप में काल स्वीकृत है। वस्तु को कालक्षण को स्वीकार करने के आधार पर ही क्षणिक कहा गया है। व्याकरण दर्शन में भी काल की चर्चा प्राप्त होती है। भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के तृतीय काण्ड में काल समुद्देश के अन्तर्गत काल के स्वरूप एवं भेदों पर विचार किया है। काल को हेलाराज ने अमूर्त क्रिया के परिच्छेद का हेतु प्रतिपादित किया हैकालोऽमूर्तक्रियापरिच्छेदहेतुः। उत्पत्ति, स्थिति और विनाश क्रियाओं में तथा इन क्रियाओं से युक्त पदार्थों की उत्पत्ति आदि में काल निमित्त कारण होता है।