Book Title: Sramana 2011 10
Author(s): Sundarshanlal Jain, Ashokkumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 16
________________ जैन दर्शन में काल का स्वरूप प्रो० धर्मचन्द जैन विद्वान् लेखक ने काल के सम्बन्ध में प्रचलित जैनेतर विभिन्न मान्यताओं की समीक्षा करते हुए जैन दृष्टि से काल का स्वरूप उभय-परम्परानुसार बतलाया है। जैनदर्शन में काल को पृथक् क्यों कहा है? द्रव्य-व्यवस्था में उसकी क्या उपयोगिता है? इन सब विषयों पर इसमें सप्रमाण विवेचन किया गया है। - सम्पादक भारतीय परम्परा में काल : भारतीय परम्परा में काल गहन चिन्तन का विषय रहा है। विभिन्न प्राचीन भारतीय दार्शनिक सिद्धान्तों में एक कालवाद नामक सिद्धान्त भी मान्य रहा है, जिसका मन्तव्य है कि जो कोई भी कार्य घटित होता है, उसमें काल ही प्रमुख कारण होता है। कालवाद की इस मान्यता का प्रतिपादक एक प्रसिद्ध श्लोक है कालः पचति भूतानि, कालः संहरते प्रजाः। कालः सुप्तेषु जागर्ति, कालो हि दुरतिक्रमः। अर्थात् काल ही पृथ्वी आदि भूतों का परिणमन करता है, काल ही प्रजा यानी जीवों को पूर्व पर्याय से प्रच्यवित कर अन्य पर्याय में स्थापित करता है। काल ही जीवों के सो जाने पर जागता है। काल की कारणता का अपाकरण नहीं हो सकता। काल को परमात्मा के रूप में भी स्वीकार किया गया है। अथर्ववेद, नारायणोपनिषद्, शिवपुराण, भगवद्गीता आदि ग्रन्थ इसके साक्षी हैं। अथर्ववेद के १९३ काण्ड के ५३-५४वें सूक्त में काल का विवेचन हुआ है। वहाँ काल की महिमा का गान करते हुए कहा है कालः प्रजा असृजत, कालो अग्रे प्रजापतिम् । स्वयम्भूः कश्यपः कालात्, तपः कालादजायत।। कालादाप समभवन् कालाद् ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेति सूर्यः काले निविशते पुनः।।। काल ने प्रजा (जगत् एवं जीवों) को उत्पन्न किया। काल ने प्रजापति को उत्पन्न किया। स्वयंभू कश्यप भी काल से उत्पन्न हुए तथा तप भी काल से उत्पन्न हुआ। काल से जल-तत्त्व उत्पन्न हुआ। काल से ही ब्रह्मा, तप और दिशाएँ उत्पन्न हुईं।

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