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जैन एवं बौद्ध भिक्षुणियों के आहार सम्बन्धी नियम
अन्शु श्रीवास्तव *
जैन एवं बौद्ध धर्म श्रमण परम्परा के मुख्य निर्वाहक रहे हैं। इन दोनों धर्मों की व्यवस्था में भिक्षु एवं भिक्षुणी संघ का विशेष महत्व है क्योंकि ये श्रमण परम्परा के आधार स्तम्भ हैं। प्रस्तुत शोध आलेख में भिक्षुणी संघ के भोजन सम्बन्धी कुछ नियमों पर प्रकाश डाला गया है।
जैन धर्म में भिक्षु एवं भिक्षुणियों दोनों के लिए समान नियमों की व्यवस्था की गई थी। गृहस्थों को किसी प्रकार की पीड़ा न देते हुए उनके द्वारा बनाये गये भोजन
से अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेने का उन्हें निर्देश दिया गया है।' उन्हें स्वादिष्ट भोजन के लोभ में किसी सम्पन्न घर में जाने का निषेध था, अपितु उन्हें सलाह दी गयी थी कि वे सभी घरों से थोड़ा-थोड़ा भोजन ग्रहण करें।
श्रमण आहार के लिए जाए तो गृहस्थ के घर में प्रवेश करके शुद्ध आहार की गवेषणा करे। वह यह जानने का प्रयास करे कि आहार शुद्ध और निर्दोष है या नहीं। इस आहार को लेने से पूर्व और पश्चात् कर्म दोष तो नही लगेंगे? यदि आहार अतिथि आदि के लिए बनाया गया है तो उसे लेने पर गृहस्थ को दोबारा तैयार करना पड़ेगा या गृहस्थ को ऐसा अनुभव होगा कि मेहमान के लिए भोजन बनाया और मुनि बीच में ही आ टपके। इससे उनके मन में क्षोभ की भावना हो सकती है अतः वह भी ग्रहण नहीं करना चाहिए। किसी गर्भवती महिला के लिए बनाया गया भोजन हो, वह खा रही हो और उसको अन्तराय लगे वह आहार भी श्रमण ग्रहण न करे | ४ निर्धन और भिखारियों के लिए तैयार किया गया आहार भिक्षुणी के लिए अकल्पनीय है | " दो साझीदारों का आहार हो और दोनों की पूर्व सहमति न हो तो वह आहार भी भिक्षुणी ग्रहण न करे |
जिस स्वामी के उपाश्रय ( शय्यातर) में भिक्षुणी रह रही हो उसके घर से भिक्षा ग्रहण करना निषिद्ध था। दूसरे के घर का आहार भी यदि शय्यातर के यहां आ जाय तब भी वह उसके यहां से भोजन नहीं ले सकती थी । भिक्षा वृत्ति के लिए भिक्षुणी
अकेले जाना निषिद्ध था। उसे दो या तीन भिक्षुणियों के साथ जाने का विधान किया गया था।' उसे यह निर्देश दिया गया था कि उद्विग्नता रहित शान्तचित्त होकर भिक्षा * शोध छात्रा, समाजशास्त्र विभाग, सामाजिक विज्ञान संकाय, का०हि०वि०वि० ।
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