Book Title: Sramana 2003 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 11
________________ जैन-दर्शन की द्रव्य दृष्टि एवं पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का पारस्परिक सम्बन्ध : ५ प्रवाह एक दूसरे को प्रभावित करते रहते हैं। यह क्रिया-प्रतिक्रिया निरन्तर चलती रहती है - चरैवेति-चरैवेति। निष्कर्षत: दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कहा जा सकता है कि 'जैन-दर्शन' का 'जीव' स्वरूपत: ज्ञानवान् है और ‘पर्यावरणीय नीतिशास्त्र' का मूलाधार मनुष्य आत्मचेतन प्राणी है; तथा उसके अस्तित्व में जगत् के प्रत्येक 'तत्त्व' का अंश अनुस्यूत है और किसी एक 'तत्त्व' के विकृत होने पर उसके 'दुष्परिणाम' सम्पूर्ण जगत् को प्रभावित करते हैं। जैसे मानव के 'उदर' की 'जठराग्नि' दूषित होने पर उसके सम्पूर्ण शरीर को व्याधिग्रस्त कर देती है। अत: वर्तमान और भावी पीढ़ियों के सम्यक् हित को ध्यान में रखकर मानव को आचरण करना है। जैसा कि रोमॉ रोलाँ ने माना है कि "व्यक्ति के कर्त्तव्य मानव समाज तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि वास्तव में सम्पूर्ण 'चेतन-सृष्टि के अन्दर फैले हुए हैं; क्योंकि प्रत्येक प्राणी मनुष्य का पड़ोसी है।'' जैनाचार्यों ने व्यक्ति को प्रकृतिस्थ बनाने के लिए ऐसी जीवन पद्धति दी है जो उसे सुन्दर आध्यात्मिक भाव-भूमि तैयार कर देती है। यह भाव-भूमि अहिंसा और अपरिग्रह की है जिसपर चलकर कोई भी व्यक्ति दूसरे को न कष्ट दे सकता है और न अनैतिक मार्ग पर चल सकता है। पर्यावरण को विशुद्ध बनाये रखने के लिए ये दो ही अंग विशेष साधक हैं। जिनपर चलकर पर्यावरण प्रदूषण से मुक्त हुआ जा सकता है। सन्दर्भ : १. कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादीनामेकैक वृद्धानि, तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, २/२४. २. वही, २/१३. ३. अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका; श्लोक; २/२२, षड्जीवकायं त्वनन्तसंख्य 'माख्यस्तथा नाथ यथा न दोषः। ४. डॉ० भागचन्द्र जैन, जैन धर्म और पर्यावरण, न्यू भारतीय बुक कारपोरेशन, दिल्ली २००१. 4. Romain Rolland : Mahatma Gandhi, Shivlal Agrawal & Co. Ltd. Agara, 1948. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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