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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार
हित जाणपणो प्रवर्त्ते ते जीवने द्रव्यानुयोगें तवज्ञान प्रगटे तेथी जे आत्मगुण प्रगटे ते आत्मगुणरक्षणायें ज प्रवर्त्ते एहवी स्वरूपानुयायी आत्मगुणनी प्रवृत्ति तेहने धर्म करी सदहे ते माटे स्याद्वादपरिणामी पंचास्तिकाय छे ते स्याद्वादरूप ज्ञान ते नयज्ञाने थाय माटे नयसहित ज्ञान करखुं ते नयज्ञान अति दुर्लभ छे. अने नयनी अनंतता छे उक्तं च जावइया वयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया ।। ते जे पूर्वापर सापेक्ष नही ते कुनय कहियें. अने सर्वसापेक्षपणे वर्त्ते ते सुनय कहियें. ते मूल सात नयं छे, तेनुं स्वरूप अल्पमात्र लखियें छैयें.
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नय ते ज्ञानगुणनुं प्रवर्त्तन छे. जे कारणे एकद्रव्य मध्ये अनंता धर्म छे ते एकसमये श्रुतोपयोगमां आवे नही, स्या माटे जे श्रुतज्ञाननो उपयोग असंख्यात समयें थाय. अने वस्तु मध्ये तो अनंता धर्म एकसमये परिणमता पामियें लेवारें श्रुतज्ञान सत्य थाय नही तेमाटे नयें करी जाणे तथा यद्यपि केवलीनो उपयोग एकसमयी छे तेमाटे जापवामां नयनुं कार्य केवलीने पडे नही पण वचने कहेतां केवलीने पण नयें करी कहेवुं पडे, कारण के वचन तो क्रमे करीने बोलाय के अने वस्तुधर्म अनंता एकसमयकाले छे तेमाटे नयें करी कहे बली जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्य कहे छे:
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जीवादि द्रव्यमां जे गुण छे ते अनंतस्वभावी, छे, गुणनी छति तेनुं परिणमन तेनी प्रवृत्ति तेमां जे समये कारणता ते समये ज. कार्यता इत्यादि अनेक परिप्पतिसहित छे तेथी कोइक रीते, सर्वनुं भिन्नामित्रपणे ज्ञान थाय ते नवयी चाय. माटे समकित रूचि जीवने नयसहित ज्ञान करवुं जे एटला धर्म सर्वद्रव्य सो रह्या छे माटे प्रथमतो श्रीगुरुकृपायी व्यगुण पर्याय
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