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१.१.६
देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
एकद्रव्यव्यापि गुण तथा स्वजाति भिन्न जीवव्यापि ज्ञानादिक सर्वगुण अने अचेतनादिक परद्रव्यव्यापिसर्व धर्मनी नास्ति छे. एम पंचास्तिकायने विषे अस्तिकायें अनंति सप्तभंगीओ पामे. ए सप्तभंगी स्याद्वाद्वपरिणामें छे ते सर्व द्रव्यादिकमां छे.
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हवे वस्तुमध्ये अस्तिपणो न मानियें तो शो दोष उपजे ते कहे छे. जो वस्तुमां अस्तिपणो न मानियें तो गुण पर्यायनो अभाव थाय अने गुणना अभावें पदार्थ शून्यतापणो पामे.
तथा जो वस्तुमध्ये नास्तिपणो न मानियें तो ते वस्तु कंदाकालें पर वस्तुपर्णे अथवा परगुणपणे परिणाम जाय तेथी कोइवारे जीव ते अजीवपणो पामे अने अजीव ते जीवपणो पामे तो सर्व संकरतादोष उपजे तथा व्यंजन के० प्रकटतानो हेतु तेने योगें छतो धर्म ते फुरे पण जे धर्मनी सत्ता छति न होय ते फुरे नही. जो नास्तिपणो न मानियें तो असत्तापणे फुरे अने जेवारें असत्ता स्फुरे तेवारें द्रव्यनो अनियामक के० अनिश्चयपणो थइ जाय, ते माटे सर्व भाव अस्ति नास्तिमयी छे. व्यंजकतानो दृष्टांत कहे छे. जेम कोरा कुंभमां सुगंधतानी सत्ता छे तोज पाणीने योगें वासना प्रगटे छे.. जो वस्त्रादिकमां ते धर्म नथी तो तेमां प्रगटतो पण नथी एम सर्वत्र जाणवो हवे त्रीजो नित्य स्वभाव कहे
छे ते जे वस्तुना भाव तेनो अव्यय के० नही टलवो एटले
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तेमनो तेमज रहेवो. ते नित्यपणो कहियें तेना बे भेद छे ते कहे छे.
एका अमच्यतिनित्यता द्वितीया पारंपर्यनित्यता || तथा द्रव्याणां ऊर्ध्वप्रचयतिर्यग्मचयत्वेन तदेव द्रव्य
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