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कर्मग्रन्थस्य टबार्थ.
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. अर्थ-हवे मिथ्यात्वे च्यार ४ गतिना छे ते ते मध्ये जे बांधे ते लिखीये छे. विगल ३ सूक्ष्म ३ तिर्यंचायु १, मनुप्यायु १, नरकायु १, ए ३ आउखा देवगति १ देवानुपूर्वी, १ ए देवद्विक, वैक्रिय शरीर, वैक्रिय उपांग, एबे वैक्रियद्ग, नरकगति, नरकानुपूर्वी, ए नरकद्विक, ए १५ प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति संज्ञिपंचेन्द्रीपर्याप्तमिथ्यात्वी तिर्यच मनुष्य बांधे एना बंधक एज छे. तथा एकेन्द्रीजाति, थावरनाम, आतपनाम, ए तीन प्रकृति आइसाणा-भवनपति, व्यंतर, ज्योतिषी, सुधर्म, इशान देवलोक पर्यंतना देव उत्कृष्टी स्थिति बांधे, आकरे तीव्र अशुद्धता ए परिणम्यो ए जीव एकेन्द्रीपणो उपार्जे. बीजी हीणी गतिमां एने जवू नथी ते माटे. ॥ ४३ ॥ तिरिउरलदुगुज्जो, छिवट्ठ सुरनिरय सेसचउगइया। आहारजिणमपुवो, अनियहि संजलण पुरिसलहुँ।४४। ___ अर्थ--तिर्यंचदुग, औदारिकदुग, उद्योतनाम, छेवठोसंघयण, ए ६ प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति मिथ्यात्वी देवता अथवा मिथ्यात्वी नारकी बांधे, शेष १०८ एकसो आठ, प्रकृतिनी उत्कृष्टी स्थिति च्यार गतिना मिथ्यात्वी बांधे, संज्ञिपर्याप्ता बांधे.
अथ जघन्य स्थितिना स्वामी कहे छे. आहारक तथा जिननामनी जघन्य स्थिति अपूर्वकरण गुणठाणे बांधे, ए प्रकृतिना बंधक मध्ये अति निर्मल परिणाम अहिंज छे. अनिवृत्ति गुणठाणे संजलना कषाय च्यार, पुरुषवेद, ए पांच प्रकृतिनी जघन्य स्थिति बांधे ॥ ४४ ॥
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