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विचार रत्नसार.
समपणुं थयुं, परिणति मध्यस्थ थइ तथा निमित्तपणे पुण्य पापना उदय काळे हर्ष के खेद न करे,
मध्यस्थ साक्षिरूप रहे. ११६ प्र०-जिननी चार निक्षेपे भक्ति शी रीते करवी ? उ०-पवित्रताथी एकाग्रचित्तेआशातना टाळी, जिननुं
नाम जपीए ते नाम निक्षेपे जिनभक्ति, २ स्थापना निक्षेपे जिनप्रतिमाजीनी अष्ट प्रकारी, सत्तर भेदी
आदि पूजा भक्ति विधिथी करतां भावपूजा तन्मय थइ परिणमे ते, ३ तथा व्यनिक्षेपे जिनभक्ति ते, जिनना जीव तेना गुणे भावे जिनना जीव जाणी तेमनी भावथकी वंदनादि करवू ते, ४ तथा भाव निक्षेपे जिनभक्ति से, त्रिगडे बेटा समोसरणे अनेक भव्यजीवोने प्रतिबोध आपता एवा जेम हाल श्री सीमंधरादि स्वामी छे तेमने वंदना नमस्कार गुण
स्तुति इत्यादि करवी ते. ११७ प्र०-जीवने कर्म संबंधी करज तथा कर्म जनित भाव
दरिद्रपणुं केम टळे ? उ०-जीव अनादि काळनो राग द्वेष मोहे परिणमे छे,
तेने देवू तथा दरिद्रपणुं बेउ वधे छे; ते टाळवानो उपाय ए छे जे समकित गुणनी प्राप्ति थए, शुद्ध रत्नत्रय धर्म प्रगटवाथी टळे; ते आवी रीते के दर्शनगुण थए द्वेषभाव टळे समभाव प्रगटे, तेथी ज्ञान गुण प्रगटे माटे, तेथी पुद्गलादि परवस्तु उपर मोह टळे, वैराग्य प्रगटे, तेथी चारित्रगुण प्रगटे, तेथी
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