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गुणठाणाआधिकार.
फोरवे तेनुं साधुपणुं जाय नहीं ७ आठमो अपूर्वकरण गुणठाणो जे जीव भावनाभावतो आत्मानो स्वरूप अनंतज्ञानमयी, अनंतदर्शनमयी, अनंतचारित्रमयी, अनंतदानमयी, अनंतलाभमयी, अनंतभोगमयी, अनंतउपभोगमयी, अनंतवीर्यमयी, अनंतअन्याबाधसुखमयी, परमआनंदमयी, अरूपी, अवेदी, अकषाई, अलेसी, अशरीरी, अनाहारी, सर्वआनंदरूप माहरो धर्म छे ए शरीर, आहारतेढुनहीं, एहवी भावनामांहे परणम्यो जीव शुक्लध्याननो पेहलो पायो ध्यावे, इहां पांच अपूर्वकरणकरे पूर्वे किंवारे नकरयां होय ते करे तेहना नाम पहेलो अपूर्वकरण थितिघात जे जीव कने असंख्याता थित स्कंधना थोकडा हता ते करमथिति सघली खपावी अथवा उपशमावी बीजो अपूर्वसंघात जे करमना रस चीकणास हती ते खपावी पातलं करवू वीजो अपूर्वगुण श्रेणि जे जीवने सत्तामांहे करमदल हता ते सर वे विखेरी नाखवा, चोथो अपूर्वगुणसंक्रम आत्माना गुणमे रमवो पांचमो अपूर्व जे नवोस्थितिबंध न करखो एहवा परिणामथी कषाय खपावीने आतमा शीतल परिणामे परणम्यो करम निजरा करे ते ए गुणठाणे जघन्य एक समय उत्कृष्ट अंतमुहूर्तनी स्थिति छे, ए गुणठाणे चारित्र सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय ए बे छे ८ नवमो गुणठाणो अनिवृत्तिबादर छे ते शुक्ल ध्याननो पहेलो पायो तेथी आवे, ए गुणठाणे वर्तता जीव एक अध्यवसाये जेटला होवे तेटला सर्वनो एक सरखो परिणाम एक सरखो संवर, एकसरखी निर्जरा, एहने सामायिक तथा छेदोपस्थापनीय ए बे चारित्र होवे, एहने अंते तीन वेद जाये तथा तीन कषाय संजलनो क्रोधमान माया लोभ जाये ए गुणटाणे संख्याता जीव होये ए गुणठाणानी स्थिति जघन्य
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