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कर्मग्रन्थस्य वार्थः
छे. शेष बाकी सूक्ष्म अपर्याप्तो १, सूक्ष्म पर्याप्तो १, बादर एकेन्द्री पर्याप्तो, बेन्द्री पर्याप्तो, तेंन्द्री पर्याप्तो, चौरेन्द्री पर्याप्तो, असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्तो, ए जीवस्थानक एक मिथ्यात्व गुणठाणो छे. ॥ ६ ॥
अपज्जत्तछक्की कमुरल, मीसा जोगा अपज्जसन्नीसु । ते सर्व मीसएस, तेणु पज्जेसु उरलमन्ने ॥७॥
अर्थ- हवे १४ जीवस्थानके १५ योग कहे छेसूक्ष्म अपर्याप्तो १, बादर अपर्याप्तो १, बेन्द्री अपर्याप्तो १, तेइंद्री अपर्याप्तो १, चौरेन्द्री अपर्याप्तो १, असंज्ञी पंचेन्द्री अपर्याप्तो ए छ ६. जीवस्थानक में कार्मण १, अने औदारिक मिश्र १. ए वे योग छे. अने संझी पंचेन्द्री अपर्याप्तामें कार्मण १, औदारिकमिश्र २, अने वैक्रियमिश्र ए त्रण ३ योग छे. अने शरीरपर्याप्त कीधां पछी औदारिक काययोग भेळे ए ४ च्यार योग छे. ॥ ७ ॥
सबे सन्निपज्जत्ते, उरलं सुहमे सभासु तं चउसु । बायरि सविउब्विदुगं, पज्जसन्निस बार उवओगा ||८||
अर्थ - - संज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्ता में सर्व १५ योग छे. सूक्ष्म पर्याप्तामें एक औदारिक योग छे. बेन्द्री पर्याप्तो, तेंन्द्री पर्याप्तो, चौरेन्द्री पर्याप्तो, असंज्ञी पंचेन्द्री पर्याप्तो, ए च्यार जीवस्थानकमें दोय २, योग छे. औदारिक काययोग १, असत्या अषा वचनयोग २, बादर पर्याप्ता तीन योग के औदारिक १, वैक्रिय २, वैक्रियमिश्र ३, ए तीन योग छे. बादर वायुकाय आश्रीने वैक्रिय छे.
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