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कर्म्मग्रन्थस्य वार्थः
लोभ ४ । संजलन ते यथाख्यात चारित्रने रोके -संजलनो क्रोध १ संजलनो मान २ संजलनी माया ३ संजलनो लोभ ४ ॥ १७ ॥ जाजीववरिसचउमासपक्खगा नरयतिरियनरअमरा । सम्माणुसव विरईअहक्खायचरितघायकरा ॥ १८ ॥ अर्थ - - हवं एहनो दृांत स्थिति कहे छे - कर्मस्थिति तो सोलकषायनी जवन्य अंतर्मुहूर्त्तनी, उत्कृष्ट ४० कोडाकोडी सागर छे. ए परिणामरूप स्थिति जाणवी. अनंतानुबंधीनी जावंजीव स्थिति अप्रत्याख्यानानी बरस १ स्थिति, प्रत्याख्याननी चउमास ४ मास स्थिति छे, संजलननी पक्ष १ स्थिति छे, अनंतानुबंधीने परिणामे मरे तो नरकगतिए जाय. १ अप्रत्याख्यानना परिगामे मरे तो तिर्यचगतिमांहे जाय. २ प्रत्याख्यानना परिणामे मरे तो मनुष्यगतिमांहे जाय ३ संजलनने परिणामे मरे तो देवगतिमांहे जाय. ४ अनंतानुबंधी समकीतने घात करे. १ अप्रत्याख्यान अणुव्रतनुं देशविरतिनो घात करें. २ प्रत्याख्यान सर्वविरतिनुं वात करे. साधुव्रतनुं वात करे आवण देवें नहीं ३ संजलन यथाख्यातचारित्रनुं घात करे एटले इंणि कषाय उदय थकां इतला गुण प्रगटे नहीं ||१८|| जलरेणुपुढविपवयराईसरिसो चविहो कोहो तिणिसलयाकट्ठट्ठिय | सेलत्थंभोवमो माणो ॥ १९ ॥
अर्थ -- संजलणो क्रोध जलरेखा समान छे. जिम जलमी रेखा तरत मिटे तिम संजलनो कोव तरत मिटे, प्रत्याख्याननो क्रोध रेणु - वेलूनी रेखा समान वाय प्रमुख लागे मिटे. तिम नमति खमति कीथां उतरे, अने अप्रत्याख्यानी क्रोध पुढवी
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