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कर्मग्रन्थस्य टबार्थः
पुरुषवेदनी अगनि तृणानी आग समान छे. जे दीसति झाळा दिसे पण टके थोडी; तिम पुरुषदाह तरत मिटे अने नपुंसकवेदनी अग्निदाह नगरदाह समान छे, जिम नगरनो दाह कदेइके बूझे नही; तिम नपुंसकवेदनी दाह कदी मिटे नहीं. एटले मोहनीयकर्मनी २८ प्रकृति कही. ॥२२॥ सुरेनरैतिरिनरयाऊँ हडिसरिसं नामकम्म चित्तिसमं। बायालेतिनवईविहं, तिउत्तरसैयं च सत्तट्ठी ॥२३॥ ___अर्थ-हवे आउखाकर्मनी च्यार प्रकृति कहे छे-तिहां सुर देवतानो आउखो १ नर-मनुष्यनो आउखो २ तिर्यचनो आउखो ३ नरय-नरकनो आउखो ४ ए च्यार भेद छे. हडिसरिसं-खोडा समान छे, जिम खोडामां पग पड्या पछी काट्यो ज नीकळे तिम आउखो कर्म भोगव्यां छूटे,
हवे नामकर्मनो स्वरूप कहे छे-नामकर्म चीतारा समान छे-तेहना अनेकभेद अनेकप्रकारना छे ते जाणवा. हवे तिहां बेतालीस ४२ भेद पण छ, तिनवइ त्रयाणु ९३ भेद पिण छे. अने १०३ एकसोतीन भेद छे, वळी सडसठि ६७ भेद पण छे. ॥३॥ गईजाइत"उवंगा बंधणसंघायाणि संघयणां । संटाणवन्न गंधरसफासँअणुपुक्षिविहगगई ॥ २४ ॥
अर्थ--इवे प्रथम बेतालीस भेद कहे छे-गति १ जाति २ त-शरीरभेद ३ उपांगभेद ४ बंधनभेद ५ संवातनभेद ६ संश्यणभेद ७ संस्थानभेद ८ वर्णभेद ९ गंधभेद १० रसभेद ११ फरसभेद १२ अनुपूर्वीभेद १३ विहायोगतिभेद ते १४. २४
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