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'व्यानदीपिकाचतुष्पदी.
सर्व ग्रंथनो सार छे रे, जीवदयावत एह
जग माता जग सुषकरू रे, कृषि उपरि जिम मेह. कृषि उपरि जिम मेह सुहावै, स्वर्ग मोक्ष सुख बीज कहाँवै; व्यसन विषय दहaट्ट गमावे, जिन वरया धरम गुण गाँवै जी. ५सां०
सप्त द्वीप भूदानयी रे, जाय न हिंसा पाप; स्वर्ण कोडि धनने सटे रे, प्राण तजै न को आप.
प्राण तजै न को आपणो लोक, स्नेहवसै हिंसा करै फोक; सूचक असि धनुष एथोक, राषै देव तिके युत सोक जी. ६ सां० मुष आषे मार्या थकां रे; पांमै सिवपुर वास; तो हणि निज परिवारने रे, पामै ते सुष पास. पाते सुप घास समाज, दीन अनाथ हणौ किण काज; हिंसाथी नभ सम दुष साज, हिंसा एह कही जिनराज जी. ७ सां०
ज्ञान ध्यान तप जप तणी रे, जीषदया कही माता; दयावंत इंद्री दमे रे, लहै ज्ञान शिव साता.
है ज्ञान शिव सात दयाथी, चित्त कठोर मधुर रसनाथी;
ते पण दायौ हिंसक साथी, लेज्यो भविक दया जय हाथीजी. ८ सां० नरक है झष तुं दली रे, हिंसाने परिणाम;
यी अधिकी अछे रे, जीवदया सुषधाम. जीवदया सुपधाम अपारू, जन्म मरण भय तणीय निवारू; शिवपुर मारग साथ ए वारू, पर तनु पीडा दुष नीकारू जी. ९ सां०
मानव पिण राक्षस समो रे, जे छे हत्याकार;
जीवदया माता समी रे, विद्यानी दातार. विद्यानी दातार ए वाणी, अभयदान द्यौ करुणा आणी; आवे संपत जेम न भाणी, ते न कही सकै इंद्र इंद्राणीजी. १० सां०
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