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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी.
कर्म मुक्ति संवर को, द्रव्यथकी मुनिरायः तजै कृपा संसारनी, संवरभाव कहाय. अविरतमय बाणे करी, मुनित्रत विभेदाप जेम सुभट संग्रामे, निजरिपुसाम्हो जाय. कर्मबंध आश्रव अछे, ते रुंधे मुनिदेव क्रोधादिकनै वारी, क्षांतादिक धर्म सेव.
ढाल - बहिनी रहि न सकी तिसइजी. तजि मिथ्या समकित थकी जी, रागादिक समयोग; फोडे तम अज्ञाने जी, ज्ञान सूर्य उपयोग.
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विवेकी संवर भावना भाव.
दूहा.
कर्म गलै जिणथी सकल, जनम मरण अंकुर; मुनिवर भावै भावना, निर्जर नाम सनूर. ढाल - तेहीज.
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क्रोधादिक रिपु भांजिवा जी, एहि ज उत्तम दाव. २ वि० सं० अविरत विष त्यागे मुनि जी, विरति सुधाकर पान
काम अकाम दुभेदनी जी, कहि निर्जरा देवः कही सकाम मुनीसनें जी, निकांमेइ सहु जीव. भविकजन निर्जर भावन एह,
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जन्म न पांमे ते सही जी, द्वारक समज सुज्ञान. ३ वि० छोडे विकलप जानें जी, धारे मन चिद्रप
४ वि०
तेह मुनीश्वर जाणीयै जी, संवर परम सरूप. मूल सुमति यम षंध छे जी, फूल धरम सम साथ सुंदर फल जसु भावना जी, जय संवस्तरु आप. ५. वि०
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