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ध्यानदीपिकाचतुष्पदी. ४७१ ज्ञान सुधारस पान करी तुम्हे रे, भाजो भवदुषराजि; भवसमुद्र तरिवाने प्राणीया रे, साहौ ध्यान जिहाज. ३ आ० करम षप्याथी मौक्ष कहै मुनि रै, तेहनौ साधन ध्यान; छोडि कल्पना उपशमरस भजी रे, ग्रहज्यो ध्यान सुज्ञान. ४ आ० संग अविद्या तजि भजि स्वस्थता रे, ज्युं पसरै शुभ ध्यान; जन्म जलधि तारक ए आतमा रे, ध्यानरूप कर मान. ५ आ० ध्यान कहूं जो तुझ विवेकथी रै, थयौ हुवे थिर हीउ, मोहनिंदथी जो जाग्यौ अछे रै, तो ध्यान सुधारस पीउ. ६ आ० बाहिर अंतर पर मूरछा अछे रै, विषय प्रमाद निवार; तत्त्वरूप सुषकारण आदरौ रे, आतमध्यान उदार. ७ आ० रागादिक भ्रम जो तुझ क्षय गया रे, तो धरि ध्याननो व्याप; संवेगादिक धीरज धरि धरो रे, न वमे शुद्ध ए आप. ८ आ० काम भोग वपुनी ममता टलै रे, ध्यान योग्यता थाय; जन्म मरण दुषथी जो ऊभग्यौ रे, तौ धरि ध्यान उपाय. ९ आ० चित्त पवित्र करे दे मोक्षने रै, योगी गोचर ध्यान; ज्ञान ज रूपी साधक ज्ञाननो रे, साध्य रूप पिण ज्ञान. १० आ० के खेपरूचि विस्ताररुचि रे, चित्र विचित्र प्रकार दाप्यो सूत्रमांहि संक्षेपथी रे, आतम तीन प्रकार. ११ आ० पुण्य पाप उपयोगनी शुद्धता रे, दाष्या तीन प्रकार; पुण्य शुद्धलेश्यावसि ऊपजै रे, ध्यान द्रव्य सुविचार. १२ आ० मिथ्या पाप कषाय प्रमादियी रे, ऊपजे ध्यान अशुद्ध रागादिक क्षय आतम शांतता रे, हुवै शुद्धातम लद्धि. १३ आ० दिव्य सौख्य जन ध्यानथकी लहे रे, अनुक्रम तौ शिव थान; दुष्ट ध्यान दुरगतिकार अछे रे, अंत कडकफल मान. १४ आ०
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