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देवचंद्रजीकृत नयचक्रसार.
आत्म स्वरूप निराधारण स्वरूप भासन स्वरूप परिणमने करवे, स्वरूप एकत्वे, स्वधर्मकर्ता स्वधर्मभोक्तापणे, सकल पर भाव तजवे, निरावरण, निःसंग, निरामय, निद्र, निष्कलंक, निर्मल, स्वीय अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतचारित्र, अरूपी,अव्याबाध, परमानंदमयी, सिमात्मा, सिद्धक्षेत्र रह्या ते सादि अनंतकाल स्थिर छे. सकल प्रदेश स्थिर छे, अने संसारी जीव तेना आठ प्रदेश सदा सर्वदा स्थिर छे. ते आठ प्रदेश निरावरणे तथा आचारांगनी टीका शैलंगाचार्यकृतना लोकविजयाध्ययनने प्रथमोद्देशके तदनेन पंचदशविधेनापि योगेनात्मा अष्टौ प्रदेशान् विहाय तप्तभाजनोदकववर्त्तमानैः सर्वैरैवात्मप्रदेशैरात्मप्रदेशावष्टब्धाकाशस्थं कार्मणशरीरयोग्यं कर्मदलिकं यद् बध्नाति तत् प्रयोगकमत्युच्यते.
एटले आ अष्ट प्रदेशे कर्म लागता नथी. इहां कोई पुछे जे. आठ प्रदेश निरावरण छे तो लोकालोक केम जाणता नथी ? तिहां उत्तर जे आत्म द्रव्यनी जे गुणप्रवृत्ति ते सर्व प्रदेश मिले प्रवतो तेमां ए आठ प्रदेश अल्प छे तेथी आठ प्रदेशमां सर्व गुण नियवरण छे पण कार्य करी शकता नथी. जेम अग्निनुं अत्यंत सूक्ष्म कणीयुं होय तेमा दाहक पाचक प्रकाशक गुण छे पण अल्पता माटे दाहकादिकार्य करी शकतुं नथी.
वली कोइ पुछे जे ए आ अष्ट प्रदेश ते निरावरण केम रही शक्या ? तेनु उत्तर जे चल प्रदेश होय तेने कर्म लामे पण अचल प्रदेशने कर्म लागे नही. एम भगवतीसूत्रे कां छे. जेअइ, वेअइ, चलइ, फंदइ, घट्टइ, सेबंधइ, ए पाठ छे ते माटे जे चल होय ते बंधाय अने आठ प्रदेश तो अचल
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