Book Title: Shekharchandra Jain Abhinandan Granth Smrutiyo ke Vatayan Se
Author(s): Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
Publisher: Shekharchandra Jain Abhinandan Samiti
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IX
डॉ. शेखरचन्द्र जैन का सन्मान अर्थात जैन एकता का सम्मान
श्री सोभागमलजी कटारिया,
अध्यक्ष- अभिनंदन समिति
अध्यक्षीय भ. महावीर ने जब 'जिओ और जीने दो' का सूत्र दिया तब उनकी भावना थी चराचर के जीवों की प्रति अहिंसा और करूणा के भाव। जब उन्होंने अनेकांत और स्याद्वाद की बात कही तब उनके मनमें यह स्पष्ट था कि वस्तु को विविध आयामों से देखा-परखा जाये। प्रत्येक कथन का अनेकांत अपेक्षा की दृष्टि से मूल्यांकन किया जाये और उसका प्रस्तुतिकरण प्रेममयी भाषा में हो। यह अनेकांत और स्याद्वाद ही एकता के परिचायक सिद्धांत हैं। ___एकता के समर्थक पुरोधा भ. महावीर के समय में एवं उनके निर्वाण के लगभग १६३ वर्षों तक यह एकता अखण्ड रही पर कालान्तर में कालदोष और व्यक्तिगत अहम् या परिस्थिति के कारण यह अखंड जैनधर्म खण्डों में विभाजित हो गया और दुखकी बात यह है कि वह उत्तरोत्तर विभाजित होता जा रहा है जो हमारी कमजोरी बन गया है। आर्थिक रूपमें सक्षम जैन समाज संगठन की दृष्टि से अक्षम होता गया और हो रहा है। हमें आज उसी एकता और संगठन की आवश्यकता है।
यह सत्य है कि तीर्थोंकरो की सन्तान हम विभाजित तो हुए पर हमारी जड़ें विभाजित नहीं हो सकी इसका उदाहरण ही यह है कि हमारे मंत्र में, तीर्थंकरों में एवं सिद्धांतो में ९५ प्रतिशत कोई भेद नहीं हो पाये। हमें आगम की वाणी भटकने से बचाती रही है। हमें उन ९५ प्रतिशत एकता के सिद्धांतों को मजबूती से स्वीकार कर एकता के सूत्र में बँधना चाहिए। हम यों कह सकते हैं कि वैयक्तिक पहिचान (आइडेन्टी) ही हम अपने पंथ के नाम पर भले ही बनाये रहें पर सामाजिक पहिचान एक मात्र 'जैन' के रूपमें ही होनी चाहिए। यह समयका तकाजा है। इस एकता के तथ्य का स्वीकार हमारे सभी सम्प्रदाय के महानुभावों ने समझा था और इसीलिए लगभग १०० वर्ष पूर्व ही भारत जैन महामंडल जैसे राष्ट्रीय एकता मंच की स्थापना कर पुनः भ. महावीर स्वामी के एकता के सूत्र को प्रचारित करने का भगीरथ कार्य किया था।
युग के अनुसार हम दिगंबर-श्वेतांबर और फिर उसमे से स्थानकवासी-तेरहपंथी भले ही हो गये हों पर हम यह न भूलें कि हम पहले जैन हैं फिर पंथी। बस इसी भावना का विकास करना है।
आज भारत वर्ष से बाहर परदेश में बसनेवाले जैनों ने इस एकता को बरकरार रखा है। आज सर्वाधिक जैन अमरीका में हैं। यूरोप एवं आफ्रिका में भी अच्छी संख्या है। वहाँ वे जैन सेन्टर के नाम से एक ही मंच पर सभी कार्य करते हैं। वहाँ जैन हैं सम्प्रदाय का भेद नहिंवत् है। जब हमारे ही भाई अमरीका या परदेश में एकता के सूत्र में बँधकर रह सकते हैं तो हम यहाँ क्यों नहीं रह सकते? बस हमें इसकी