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निरीक्षण ( Mal-observation ) तथा अनिरीक्षण ( Non-observation ) दोष रह जाना सहज सम्भाव्य है ।
इसकी भाषा-शैली के विषय में भी कुछ निवेदन करना आवश्यक है। हिन्दी में लिखित इस ग्रन्थ की भाषा-शैली यथासम्भव हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप रखी गयी है, किन्तु विषय की गम्भीरता तथा शास्त्रीय प्रकृति ( Technical nature ) होने के कारण कहीं-कहीं हिन्दी में सामान्यतया अप्रचलित शास्त्रीय शब्द आ गये हैं, किन्तु आद्योपान्त ग्रन्थ का अध्ययन करने पर वे दुरूह नहीं रहेंगे-ऐसी आशा है । इसी प्रकार कहीं पर- विशेषतया नव्य-न्याय तथा नव्य-व्याकरण के सम्बद्ध स्थलों पर-हिन्दी में अव्यवहृत शैली का उपयोग करना पड़ा है, तथापि उसे प्रकारान्तर से समझाने का पूर्ण प्रयत्न किया गया है, जिससे सामान्य पाठक को भी न्यूनतम कष्ट हो। फिर भी अपनी विवशता तथा अशक्ति से उत्पन्न अभिव्यक्तियों के लिए मैं बुद्धिमान् अध्येताओं से क्षमाप्रार्थी हूँ । यही सन्तोष है कि भाषाविज्ञान के सिद्धान्त के अनुसार जब एक ही भाषा बोलने वाले डॉक्टर तथा वकील की अभिव्यक्तियों में पर्याप्त अन्तर होता है तब प्रस्तुत स्थल में विषय-निष्ठ न्यूनतम भाषा-भेद अवश्य ही मर्षणीय है।
प्रतिपाद्य विषय में किसी अभिनव सिद्धान्त के निवेश का अभिमान नहीं करने पर भी इतना कहना सम्भव है कि कारक से सम्बद्ध चिन्तन का प्रथम समन्वित तथा व्यापक रूप देने का प्रयास इस ग्रन्थ में किया गया है। इस कार्यक्रम में कतिपय अस्पृष्टपूर्व शास्त्रीय ग्रन्थियों के श्लथीकरण का दृश्य भी इसमें मिल सकता है। इसके निर्वाह के लिए कहीं-कहीं आनुषंगिक विषयों का विवेचन तथा पुनरुक्तियाँ तक हुई हैं, किन्तु उनके बिना विषय की दुरूहता यथापूर्व बनी रहने के भय से मैं विवश था। मेरा विश्वास है कि ये विरल पुनरुक्तियां प्रतिपादन की अभिनव शैली का निवेश करने के कारण चित्तोद्वेजक नहीं होंगी।
किसी भी कृति की उत्पत्ति में कई कारण संयुक्त रूप से काम करते हैं । मम्मट ने काव्य-हेतु के रूप में जो शक्ति, निपुणता ( व्युत्पत्ति ) तथा अभ्यास की समुदित-कारणता प्रतिपादित की है वह व्याख्यान्तर से कृतिमात्र के लिए सत्य है । विषय में रुचि, उत्साह, कल्पना-शक्ति तथा जन्मान्तर के संस्कार के रूप में प्राप्त प्रतिभा को मैं शक्ति के अन्तर्गत रखता हूँ, क्योंकि इसके अभाव में कृति का प्रसार नहीं होता, यदि हो भी तो वह हास्यास्पद कृति होती है। ज्ञान, अध्ययन तथा वातावरण की अनुकूलता व्युत्पत्ति देती है। अन्त में अभ्यास का अर्थ है-प्रयोग और त्रुटि ( Trial and error ) से संघर्ष करते हुए लक्ष्य की ओर अग्रसर होना। प्रस्तुत कृति में भी इन तत्त्वों का समुदित