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जिसकी उपस्थापना अनिवार्य थी। किन्तु इससे यह नहीं समझना चाहिए कि तन्त्रान्तर के कारक-विषयक विवेचन उतने ही हैं जितना इस प्रबन्ध में स्थानस्थान पर निर्दिष्ट है । प्रथमाध्याय में प्रदर्शित इतिहास से स्पष्ट होगा कि उन सम्प्रदायों का साहित्य भी बहुत व्यापक तथा गहन है । यदि सभी सम्प्रदायों के कारक-विवेचन इसमें समाविष्ट होते तो इस ग्रन्थ का आकार न्यूनतम त्रिगुणित तो हो ही जाता। यही कारण है कि नव्य-व्याकरण में प्रदर्शित सामग्री का उपयोग करने के समय उसकी पूर्वपीठिका में नव्य-न्यायोक्त कारक-विचार-सामग्री का भी उसी परिमाण में निरूपण किया गया है जितना वह नव्य-व्याकरण के ग्रन्थों में पूर्वपक्ष से उद्धृत है अथवा जिसकी ध्वनि वहाँ प्राप्त होती है । वास्तव में नव्य-न्याय का कारकवाद अपने-आप में एक महत्त्वपूर्ण शोध-अध्ययन का विषय है ।
ग्रन्थ की दूसरी सीमा है-कारकमात्र का विवेचन । प्रकरण-ग्रन्थों में विभक्ति तथा कारक को इस प्रकार एक साथ रखा गया है कि वे प्रायः एकाकार प्रतीत होते हैं। यह सत्य है कि कारक की अभिव्यक्ति विभक्ति के माध्यम से होती है; किन्तु ऐसी बात तो नहीं कि उस अभिव्यंग्य कारक-शक्ति का स्वरूप-निर्धारण विभक्ति से पृथक् हटकर हो ही नहीं सके। विभक्ति विशुद्ध शब्दपक्षीय तत्त्व है तथा कारक अर्थपक्षीय या दार्शनिक तत्त्व । इस ग्रन्थ में मूलतः कारकों का विभक्ति से पृथक् अध्ययन करने पर भी एक अध्याय में उन दोनों के बीच सम्बन्ध दिखलाते हुए कारक तथा कारकेतर की अभिव्यञ्जिका विभक्तियों का पृथक्-पृथक् निर्देश किया गया है। विभक्तियों के पृथक् अध्ययन का पूर्ण अवकाश है—विशेषतया वाक्य विज्ञान की अनिवार्य इकाई के रूप में इसका अध्ययन सम्यग् रूप से हो सकता है। इसकी पूर्ति कुछ अंशों में तारापुर वाला की संस्कृत वाक्य विज्ञान-विषयक पुस्तक' करती भी है । तथापि परवर्ती आर्यभाषाओं के सन्दर्भ में अथवा समवर्ती भारतयूरोपीय भाषाओं के सन्दर्भ में भी विभक्तियों के अलग-अलग अध्ययन का पर्याप्त अवकाश है।
__ ग्रन्थ की तीसरी सीमा विशुद्ध शास्त्रीय दृष्टिकोण से विषयों का ऐतिहासिक पर्यवेक्षण है । इसका अभिप्राय यह है कि संस्कृत भाषा में लिखित मूल ग्रन्थों को ही आधार मानकर इस ग्रन्थ की रचना हुई है। मूल ग्रन्थों के आशयों को स्पष्ट करने के लिए प्रामाणिक टीकाओं का आश्रय लिया गया है, क्योंकि 'टीका गुरूणां गुरुः' की उक्ति ने मुझे अनेक स्थलों पर भ्रम तथा अपसिद्धान्त के निवेश से बचाया है । इस सीमा का अभावरूप पक्ष यह है कि तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने के लिए भी मैंने अन्य भाषाओं के ऊपर
1. I. J. S. Taraporewala, Sanskrit Syntax, Delhi, 1967