Book Title: Sanskrit Vyakaran Me Karak Tattvanushilan
Author(s): Umashankar Sharma
Publisher: Chaukhamba Surbharti Prakashan

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Page 10
________________ वर्षों के व्याकरणाध्ययन के अनुभव के परिणामस्वरूप मुझे ज्ञात हुआ कि समास, कृदर्थ, धात्वर्थ, तिङर्थ, विभक्ति, तद्धित, लिंग, वचन, पुरुष, वृत्ति, कारक इत्यादि व्याकरणशास्त्रीय विषयों के विशेष शोधानुरूप अध्ययन की आवश्यकता है, क्योंकि ये विषय विविध ग्रन्थों में बिखरे पड़े हैं। नागेशभट्ट की लघुमञ्जूषा में जो सम्बद्ध विषयों के चिन्तन की परिणति दिखलायी पड़ती है उसके पीछे एक लम्बा इतिहास पड़ा है, जिसका अध्ययन करना चाहिए । पाणिनि-तन्त्र में एक-एक समस्या का विवेचन करने के लिए इतनी सामग्री विद्यमान है कि कोई चाहे तो आजीवन एक ही समस्या से संघर्ष करता रहे । दूसरे व्याकरण-तन्त्रों में भी उसका विवेचन बहुत उत्तम रीति से हुआ है । कतिपय स्थलों पर तो मैंने यह अनुभव किया है कि पाणिनि-तन्त्र में अस्पृष्ट विषयों पर भी ये पुष्कल सामग्री प्रदान करते हैं। पाणिनीय व्याकरण का अध्ययन करते हुए इनकी उपयोगिता की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उपरिनिर्दिष्ट विषयों में से मैंने स्वेच्छा से कारक विषय का चयन किया जिसके विशेष अध्ययन का परामर्श मुझे संस्कृत-विद्यापीठ, दरभंगा के निदेशक डॉ० शीतांशुशेखर बागची ने दिया। यह अप्रैल, १९६५ की बात है । मैं उस समय तक व्याकरणारण्य में निरुद्देश्य भ्रमण कर रहा था-कभी यह विषय कभी वह; इस प्रकार अनेक समस्याएँ रजोवृत्ति के कारण जन्म ले रही थीं। किन्तु तब से मैंने अपने-आपको एक ही विषय पर नियन्त्रित करके सम्बद्ध स्थलों के विशेष अनुशीलन में लगाया। कठिनाइयाँ आयीं किन्तु उनसे संघर्ष करने में मनोरञ्जन के साथ सन्तोष भी होता रहा कि कुछ काम हो रहा है । ज्ञान इतना उपयोगी होता है कि उसकी एक कणिका भी व्यर्थ नहीं जाती। इसी ज्ञान-संबल के बल पर यह लघु-यात्रा हो सकी है। कारक के विशेषाध्ययन-रूप अपने ज्ञान का अनुव्यवसायात्मक फल वाक्यप्रयोग ( कारकमहं जानामि ) के द्वारा प्रदर्शित करने का मैं अधिकारी तो नहीं हूँ, किन्तु अपने इस लघु प्रयास द्वारा उक्त अध्ययन का निष्कर्ष रखने का विनम्र साहस तो कर ही सकता हूँ। प्रकृत ग्रन्थ ९ अध्यायों में विभक्त है-प्रथम तीन अध्याय पृष्ठभूमि के रूप में कारक-सामान्य-विषयक ऐतिहासिक तथा विवेचनात्मक सामग्री देते हैं, शेष छ: अध्याय एक-एक कारक-विशेष के अध्ययन से सम्बद्ध हैं। इन विवेचनों की तीन सीमाएँ हैं। पहली तो यह है कि केवल पाणिनि-तन्त्र के ग्रन्थों में उपस्थित किया गया कारक-विश्लेषण इसका उपजीव्य है, तन्त्रान्तर में दृष्टचर विवेचनों का अत्यल्प प्रयोग किया गया है । इस 'अत्यल्प' की आवश्यकता भी इसीलिए पड़ी कि पाणिनि-तन्त्र में विवेचनों का पूर्वपक्षनिरूपण तथा कहीं-कहीं अभिनव पूरक विवेचन भी उन तन्त्रों में हुआ है

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