________________ पुद्गलपरावर्तका स्वरूप गाथा 5-6 [51 पुद्गलानां अर्थात् चौदहराज प्रमाण लोकवर्ती समस्त पुद्गलोंका परावर्तः–अर्थात् औदारिकादि शरीररूपसे ग्रहण करके वर्ण्यरूप परावर्तन, जिसमें वह पुद्गलपरावर्तः८२ कहलाता है। , उसके ८3द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव ऐसे चार प्रकार हैं। पुनः उस हरएकके सूक्ष्म और बादर ऐसे दो-दो भेद हैं। उनमें हरएक पुद्गलपरावर्त स्थूलदृष्टिसे अनन्त उत्सर्पिणीअवसर्पिणी प्रमाण होता है। संसाररूपी भयंकर अटवीमें भ्रमण करती हुई कोई भी आत्मा जब चौदहराज लोकवर्ती जो सर्व पुद्गल वर्तमान हैं उन सर्व पुद्गलोंको अनन्त जन्म-मरण करनेसे स्वस्वयोग्य औदारकादि शरीररूपसे अनुक्रमपूर्वक, ग्रहण करके छोड़े, उसमें जितना समय-काल लगे उसे 'बादर-द्रव्य-पुद्गलपरावर्त' कहते हैं / [इस.पुद्गलपरावर्त में एक समय औदारिकरूपसे जो पुद्गल ग्रहण किये गये उन्हें औदारिककी गिनतीमें गिर्ने / वैक्रियरूपसे ग्रहण किये उन्हें वैक्रियमें, पुनः तैजसकार्मणके प्रतिसमय जो पुद्गल ग्रहण किये जायें उन्हें तैजसकार्मणमें गिन लें। इनमें नवीन-नवीन ग्रहण किये जाते ( अगृहीत ) औदारिकादिपुद्गलोंकी गिनती लेनेकी है। लेकिन गृहीतकीनहीं। ] . . . // सूक्ष्म-' द्रव्य '-पुद्गल-परावर्त // 2 // . ऊपरि कथित बादर पुद्गलपरावर्त में बिना क्रम सर्व पुद्गल ग्रहण था, और वह गिनतीमें लिया जाता था। परन्तु इस दूसरे भेदमें तो औदारिक, वैक्रिय, ८४तैजस, भाषा, 82. यह अर्थ यद्यपि केवल 'द्रव्यपुद्गलपरावर्त के लिए ही लागू होता है, तो भी क्षेत्रादि भेदबाले शेष तीनों अनन्तकाल प्रमाणोंमें भी 'पुद्गलपरावर्त' शब्दके रूढ होनेसे वास्तविक रूपमें क्षेत्रादि भेदमें तो क्षेत्रपरावर्त, कालपरावर्त, भावपरावर्त शब्दका प्रयोग होना चाहिए, परन्तु वैसा न करके क्षेत्रपुद्गलपरावर्त, कालपुद्गलपरावर्त और भावपुद्गलपरावर्त ऐसा व्यपदेश किया जाता है / 83. जिसके लिए शतककर्मग्रन्थमें कहा है कि- .. “दव्वे खित्ते काले भावे, चउह दुह बायरो सुहुमो / होइ अणंतुस्सप्पिणीपरिमाणो पुग्णालपरट्टो // 1 // " (गाथा-८६) 84. वैक्रियके बाद आहारकवर्गणा ग्रहण क्यों नहीं की ? तो इस प्रश्नके उत्तरमें समझना कि आहारक शरीर [एक जीवाश्रयी] समग्र भवचक्रमें सिर्फ चार ही बार प्राप्त होता है (अनन्तर वह जीव मोक्षमें जानेवाला होता है ), अतः इस वर्गणारूपसे सर्व पुद्गल ग्रहण ही नहीं हो सकते, इसलिए उसे ग्रहण नहीं किया है /