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नहीं वरन् यदि इस ग्रंथ को लालचंद भगवानदास के लेख का स्वतंत्र अनुवाद कहा जाय तो भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी ।
विहार में प्रूफ समयानुकूल न मिलने के कारण तथा दृष्टिदोष के कारण कई अशुद्धियें प्रयत्न करते हुए भी रहजाना बहुत कुछ सम्भव है अतएव सुज्ञ समालोचकों से प्रार्थना है कि मुझे सूचित करें ताकि आगे की आवृत्ति में सब भूलें सुधारली जाँय ।
यदि कोई और विद्वान् इस सम्बन्ध में लेखनी उठाता तो इससे भी अच्छा लिख सकता परन्तु दूसरों की इस ओर लेखनी उठती हुई न देख कर ही मैंने इस ओर यह प्रयास करने का साहस किया है । किसी कविने ठीक ही कहा है
"मति अति ओछि ऊँचि रुचि छी चाहिय मी जग जुरै न छाछी "
जोधपुर १४ मई १९३१
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लेखक:
मुनि ज्ञानसुन्दर
नोट – इस ग्रन्थ के समाप्त होते होते मुझे संम्बंध में और भी अधिक सामग्री प्राप्त हुई आवृत्ति में ही उपयोग कर सकूँगा ।
है
समरसिंह की
जीवनी के
जिस का मैं दूसरी
- लेखक.