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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
अन्तर-ज्ञान अन्तर-ज्ञान उस अनन्त की यात्रा करवाता है, जिसका पार संसार से परे हैं।
अन्तर-दिशा जीवन की गंगोत्री स्वयं की उस अन्तदिशा में है, जहां पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण का चौराहा नहीं मात्र निर्विकल्प मौन का केन्द्र है।
अन्तर-यात्रा चेतना का परिधि से केन्द्र की ओर, पर से स्वयं की अोर तथा दृश्य से द्रष्टा की ओर प्रतिक्रमण करना ही अन्तर-यात्रा है।
अन्तर-रमण मनुष्य की परिपूर्णता मन की बाहरी सैर में नहीं अन्तर-रमण में है। अन्तर गृह की ओर कदम बढ़ाना ही अन्तर-यात्रा है।
अन्तर-शुद्धि जीवन का आन्तरिक संशोधन बाह्य परिवर्तन की औपचारिकता की अपेक्षा नहीं रखता।
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