Book Title: Rom Rom Ras Pije
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 47
________________ ३२ ] रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ ध्यान भीतर की अलमस्ती है, अन्तर आँखों का उन्माद है और जीवन के द्वार पर प्रतिक्रमण है । ध्यान-समाधि चित्त का प्रक्षुब्ध न होना ही ध्यान है और उसका प्रसन्नता से भरपूर हो जाना समाधि है । नम्रता नम्रता जीवन की वह अनिवार्यता है, जो घड़े को पानी से सराबोर करती है । नवकर्म किये हुए को ही करते रहना लीक पर चलना है । कुछ नया होने- बनने के लिए नये मार्ग का निर्माण अपरिहार्य है । नियति नियति की रेखाओं को मिटाने के लिए उठने वाली गुली ही मिटती है, फिर चाहे वह अंगुली चक्रधर की भी क्यों न हो । जिसने नवजात के पेट में भूख रखी, उसी ने माता के स्तन में दूध रखा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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