Book Title: Rom Rom Ras Pije
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 68
________________ रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ [ ५३ विभाजन खुदा और ईश्वर के नाम पर मानव-जाति का विभाजन मानवीयता का अतिक्रमण है। वियोग प्रेम की गहराई का वास्तविक अंदाजा वियोग में ही होता है। अपने प्रियतम से जितने दूर हो जानोगे, उतने ही पास आने का मजा होगा। जितनी कंठ में प्यास होगी, पानी मिलने पर उतनी ही तृप्ति होगी। विलम्ब आवेश के क्षणों में अभिव्यक्ति में किया जाने वाला विलम्ब सद्व्यवहार और विवेक को बनाये रखने में कारगर साबित हो सकता है। विवशता जुल्मों का तब तक मुकाबला नहीं किया जा सकता, जब तक पाँवों में विवशता की बेड़ियाँ हैं। विवेक धर्म को जब विवेक की अग्नि दी जाती है, तब वह सत्य और शक्ति का उद्भावक हो जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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