Book Title: Rom Rom Ras Pije
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 72
________________ रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ [ ५७ व्यसन व्यक्ति की प्रात्म-जागृति एवं प्रज्ञा शक्ति का हनन कर देता है। व्याधि तन की हर व्याधि में मन की समाधि को अविचल बनाए रखना साधना की नींव है। व्यापकता चिमनी लेकर जिसे ढंढ़ रहे हो उसकी व्यापकता चिमनी में भी है। व्यावहारिक-तप अपनी शक्ति से अधिक किया गया तप शरीर के लिए कष्टकर है। जीवन में आने वाली बाधाओं का स्वागत कर लेना तप की व्यावहारिक भूमिका है। शरीर जब नाव यात्री नहीं हो सकती, तो शरीर आत्मा कैसे हो सकता है। शान्ति स्वयं को प्रात्म-शान्ति एवं विश्व-शान्ति के लिए समर्पित करना जीवन का नैतिक कर्तव्य है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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