Book Title: Rom Rom Ras Pije
Author(s): Lalitprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 76
________________ रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ [ ६१ संग्रह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहना मनुष्य का कर्तव्य है, लेकिन संग्रह की भावना से किया गया संचय मानवीय अपराध है। संन्यास संन्यास मात्र जीवन की व्यर्थता का बोध नहीं है, अपितु उसकी सार्थकताओं को प्रात्मसात् करने का अभियान है। वहाँ संन्यास है, जहाँ पाँव आगे पीछे होते रहते हैं, पर मन अडोल रहता है । संन्यास जीवन से नहीं; संसार से विरक्ति है। संयम रोजमर्रा की जिन्दगी को सुसज्जित बनाने की बजाय सुसंयमित बनाना अधिक श्रेयस्कर है। संयोग संयोग कभी स्वभाव नहीं हो सकता। मिट्टी सोने के साथ रहने से सोना नहीं बना करती। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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