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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ५६ का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए विद्यालयों के दरवाजे खटखटाये हैं, वे सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ने के बावजूद कभी भी नीचे फिसल सकते हैं।
शिवालय शिवालय में जाना तभी सार्थक कहलाता है जब मन शिव-सुन्दर बन जाता है।
शून्य-चित्त मनुष्य का शून्य-चित्त हो जाना व्यक्तिगत चेतन में परमात्म चेतन को अवतरित करने की सही पृष्ठभूमिका है।
श्रमण शत्रु-मित्र, कंकर-कंचन, आह्लाद-विषाद जैसे उतारचढ़ाव भरे हर परिवेश में स्वयं को समतौल रखने वाला ही श्रमण है।
श्रद्धा श्रद्धा वह भावना है, जो साकार में निराकार रूप में प्रगट होती है।
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