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रोम रोम रस पीजे
Education International
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'रोम-रोम रस पीजे' महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागरजी के अनुभवों का जितना विस्तार है, चिन्तन और भावना की गहराई भी उतनी ही है । जितनी विविधता है, उतनी ऊँचाई भी है । वक्तव्य में सादगी पर पैठ पैनी । इन रस- पूर्ण जीवन - सूत्रों में हर आयाम उजागर हुआ है, फिर चाहे वह निजी हो या सार्वजनीन प्राध्यात्मिक हो या व्यावहारिक । जीवन के हर मोड़ पर सहकारी हैं सूक्त - वचन । सुख में हृदय की किल्लोल बनकर और दुःख में मित्रवत् सहभागी बनकर । पान करें रस का, ह्रर वचन से झरते अमृत का रोम-रोम से, तहेदिल से |
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राजमती - सिरीज श्रीमती राजमती बोथरा (ध. प. श्री परीचन्दजी बोथरा) की स्मृति में श्री सुमतिचन्द, विनोदचन्द, सुबोधचन्द
बोथरा, कलकत्ता
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रोम-रोम रस पीजे
महोपाध्याय ललितप्रभ सागर
श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, कलकत्ता
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रोम-रोम रस पीजे ललितप्रभ
प्रकाशक : श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, 8-सी, एस्प्लानेड रो ईस्ट, कलकत्ता-७०० ०६६
प्रकाशन-वर्ष : मार्च, १९९३
मूल्य : दस रुपये
मुद्रक : भारत प्रिण्टर्स (प्रेस) जालोरी गेट, जोधपुर.
ROM-ROM RAS PEEJE MAHOPADHYAY LALITPRABH SAGAR/1993 Sri Jit-yasha Shree Foundation, 9-C Esplanade Row East, CALCUTTA-69
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श्र
अकेलापन
अच्छा-बुरा
अतिक्रमण
अतिथि
अतिथि सत्कार
अतीत
प्रतीत पुनरावर्तन
अधिकार
अध्ययन
अनश्वर-पहल
अनुद्विग्नता
अनुशासन
अन्तर-जागरुकता
अन्तर-ज्ञान
अन्तर- दिशा
अन्तर यात्रा
अन्तर- रमण
÷
अनुक्रम
४
४
४
अन्तर- शुद्धि
अन्धा
अपराध
अपराधी
अपव्यय
पूर्ण अपेक्षा
अपेक्षा- उपेक्षा
अप्राप्ति
अभिनय
अभिलाषा
अभिव्यक्ति
अमृत-रक्त अरहन्त
अवसर
अविश्राम
असम्बद्धता असलियत
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४
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15 15
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अस्पृश्यता अहंकार अहं-नमन अहम्-बोध अहसान अहसास अहोभव
आलोचना प्राशा पाशा-अपेक्षा प्राशा-निराशा आसक्त
इंसानियत
प्रा
इच्छा
ई
ईमानदार ईश-नाम ईर्ष्या
आँसू आईना
.... १० प्राकार
.... १० आचार-विचार-भेद प्राचार्य ..... ११ आत्म-उपलब्धि आत्म-कथा आत्म-कर्तृत्व आत्म-च्युति प्रात्म-ज्ञान .... १२ आत्म-दर्शन
.... १२ आत्म-पृच्छा प्रात्म-मूल्य ..... १२ आत्म-विजेता .... १२ आत्म-विश्वास आदर्श अान्तरिक मूल्य
उपकार उपलब्धि उपवास उपासना
.... १२
एकता एकाग्रता-सोपान .... १६
اللہ
.... १३
اللہ
कथनी-करनी
___.... १७
ہے
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....
२१
करनी कर्तव्य-पथ कर्म-गणित कर्म-फल कर्मयोग कर्मानुवृत्ति किताब कृतघ्नता केन्द्रीकरण क्रोध क्रोध-पछतावा क्षण-भंगुरता क्षमा
.... ..... .... .... .... .... ....
१७ १७ १७ १७ १८ १८ १८
चांटा चारित्र-समाधि चारित्र-हत्या चित्त चित्त-कालुष्य चुनौती
ख्वाब
जन्म-मृत्यु जल्दबाजी जागृति जीवन जीवन-दर्शन जीवन-मूल्य जीवन-यात्रा जीवन-सौरभ जीवन-स्मृति जीवन्तता जीवैषणा ज्ञान-ज्योति ज्ञान-समाधि ज्ञानी ज्योतिर्मयता
गंगा-स्नान गति/प्रगति गर्दभ-बुद्धि गुरु-पहचान गुरु-शक्ति गृह-शान्ति गोली
.... २० .... २० .... २० .... २० .... २० .... २१ .... २१
....
२५
टालना
..... २५
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....
३०
4 साल
देह-यासक्ति दोगलापन
ठोकर
डरपोक
डींग
धर्म ध्यान ध्यान-समाधि
ढुलमुल-यकीन
.... २६
त
नम्रता नवकर्म नियति
तटस्थता
निर्ग्रन्थ
....
२८
तन-मन-सम्बन्ध तनाव-ग्रस्त तनाव-मुक्ति तप तप-ताप तपः समाधि तपस्वी तृष्णा तृष्णा-मुक्ति त्याग
निलिप्तता निर्वाण-पथ निवास निश्छलता नेकी/बदी
.....
.... .....
३४ ३४ ३४
दर्शन दर्शन-समाधि दहेज
पड़ौसी परनिन्दा परमात्मा-खोज परमात्म-प्रेम परमात्म-भूमिका परमात्म-स्मरण परमात्मा परम्परा परिवर्तन
३
दिल
देह
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पात्रता
पाप-प्रक्षालन
पार्थक्य
पीड़ा
पुनर्प्रकाश
पुरुषार्थ
पूर्व-जागृति
पैसा
प्यास
प्यासे नयन
प्रतिक्रिया
प्रतिस्पर्धा
प्रमाद
प्रमाद-त्याग
प्रशंसा
प्राप्त
प्रार्थना
प्रेम
प्रेम-सद्भाव
फ
फल-भेद
ब
बन्धन र मुक्ति
बुढ़ापा
बेवकूफ
ब्रह्मचारी
....
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३५
३६
३६
३६
३६
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३७
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३८
३८
३८
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३६
३६
३६
४०
४०
भ
भक्त
भक्ति
भगवद्-स्मररण
भलाई
भविष्य
भाई-बहिन
भाग्य
भाव
भाव-भेद
भाव - मिथ्यात्व
भाव-विरक्ति
भिक्षु
भूखा
भूल
भूला-भटका
म
मधुर वार्तालाप मध्यम-मार्ग
मन
मनःकर्तृत्व
मनन
मनोगत
मनोपयोग
मनोमुक्ति
मनोसंसार
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....
....
४०
४०
४०
ܡ ܡ
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४१
४१
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४३
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४४
४४
४४
४४
४४
४४
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( १० )
....
४५
४६
मनोसम्बन्ध मन्दिर-नियम मरण-परिवर्तन मरणोपरान्त मांगना
५०
रवानगी .... राखी राग-द्वेष राग-विराग-वीतराग राजनीति राह रोशनी
५०
.... .... .... ....
४५ ४६ ४६ ४६
लंघन लक्षित
तप
....
४६
....
४७
लाभ
४७
४७
6
माता-पिता मातृ-प्रेम मानवता मानवीय समानता मानसिक तप मितभाषी मुक्ति-मार्ग मुनि-जीवन मुसीबत मूढ़ता मूर्ख मृत्यु मृत्यु-दर्शन मेरापन मोक्ष मौन
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वचन-वीर वर्तमान-जीवी वासना-साधना विचार-मुक्ति विजय विनाश-विकास विभाजन वियोग विलम्ब विवशता विवेक विश्व-मैत्री विश्वासघात
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....
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योग योजना
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४६ ४६
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( ११ -)
श्रद्धा श्रद्धा/प्रज्ञा
विस्मरण वीतरागता वीर वृत्ति वृत्ति-विजय
श्राद्ध
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५५ ५५
वृद्ध
वेश वैमनस्य
संकल्प/समर्पण संकीर्ण संगत संग्रह संन्यास संयम संयोग
वैर
वैराग्य व्यक्तित्व-विकास व्यसन व्याधि व्यापकता व्यावहारिक-तप ....
संवेग
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शरीर शान्ति
संवेदनशील संसार संस्कारित सचेतनता सत्कर्म-प्रवृत्ति सत्पथ सत्संग सद्गुण-धृति सद्गुरु सद्गृहस्थ सद्भाव सद्भाव-प्रतिष्ठा सन्तोष/ईर्ष्या सभ्यता
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शाश्वतता
शास्त्र शिक्षा शिक्षा-उद्देश्य शिक्षा और आजीविका शिवालय शून्य-चित्त
.... ५६ श्रमण
.... ५६
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....
५६
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( १२ )
समर्पण समानता सम्पर्क
७०
सार्थक सार्थकता सिद्धांत-उपयोग सीख सुख-वितरण
७०
सम्बन्ध
७१
१
सेवा
सम्भावना सम्मान सम्यग्दृष्टि सर्जन-संहार सर्वज्ञ सर्व-दर्शन सर्वात्मदर्शन सहृदयता सहिष्णुता सही-गलत साक्षी-भाव साधना-पथ
9 9 9 9999
सोच स्मृति स्मृति-अवशेष स्वप्न स्वभाव स्वर्ग-नरक
१
स्वाद
स्वास्थ्य
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हँस हक हार-जीत हिंसा हिंसा-अहिंसा हीन
साधुता सामाजिक-धर्म सामाजिक विकास साम्प्रदायिकता
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रोम रोम रस पीजे
अ
अकेलापन
स्नानघर में मिलने वाला अकेलापन भीड़ के प्रानन्द से बेहतर है ।
अच्छा-बुरा
बुरे से बुरे आदमी में भी कोई-न-कोई अच्छाई होती है ।
अतिक्रमण
जीवन पर अमानवीय तत्त्वों का आक्रमण स्वाभाविक है, लेकिन अमानवीय तत्त्वों को जीवन का अंग बना लेना जीवन मूल्यों का अतिक्रमण है ।
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२
]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
अतिथि शुक्रिया है उसका, जो अपना अन्न खाने के लिए • तुम्हारे घर मेहमान बना। तुमने क्या खिलाया, उसने वही खाया जो उसके भाग्य का था।
अतिथि-सत्कार जब अतिथि-सत्कार व्यावहारिकता का रूप ले लेता है, तब उसके प्राण उड़ जाते हैं ।
अतीत बीता हुआ समय और निकला हुया शब्द अतीत है, अतीत की पुनर्वापसी असम्भव है।
__ अतीत-पुनरावर्तन याद को भुलाने का अर्थ है, अतीत की विस्मृति । अतीत विस्मरण के लिए नहीं, संस्मरणों से सीखने के लिए है ताकि कल की अच्छाइयों को आज और कल भी बार-बार दोहराया जाता रहे ।
अधिकार अगर किसी को जीवन देने का अधिकार तुम्हारे हाथ में नहीं है, तो मृत्यु का अधिकार किसने दिया।
आधुनिक संसार की आधी दुनिया ऐसी है, जो रात को रो-रोकर सुबह करती है और दिन को ज्यू-त्यू शाम करती है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[३
अध्ययन अच्छी पुस्तकों का अध्ययन महापुरुषों से सीधा वार्तालाप है।
अनश्वर-पहल मनुष्य को अपने शरीर के नश्वर होने से पूर्व अनश्वरता के लिए पहल करनी चाहिये ।
अनुद्विग्नता जीवन में उतार-चढ़ाव आना स्वाभाविक है, लेकिन विपरीत स्थितियों से खुद को अनुद्विग्न रखना साधना की आधार भूमिका है।
अनुशासन अनुशासन किसी मर्यादा विशेष का आरोप नहीं है, अपितु वह जीवन की व्यवस्था है। अनुशासन स्वयं पर 'स्वयं' का नियमन है। साधुता आत्म-नियंत्रण की ही अपर स्थिति है।
अन्तर-जागरुकता अन्तर-जागरुकता को आत्मसात् करना जीवन की देहरी पर दशहरे का त्यौहार है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
अन्तर-ज्ञान अन्तर-ज्ञान उस अनन्त की यात्रा करवाता है, जिसका पार संसार से परे हैं।
अन्तर-दिशा जीवन की गंगोत्री स्वयं की उस अन्तदिशा में है, जहां पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण का चौराहा नहीं मात्र निर्विकल्प मौन का केन्द्र है।
अन्तर-यात्रा चेतना का परिधि से केन्द्र की ओर, पर से स्वयं की अोर तथा दृश्य से द्रष्टा की ओर प्रतिक्रमण करना ही अन्तर-यात्रा है।
अन्तर-रमण मनुष्य की परिपूर्णता मन की बाहरी सैर में नहीं अन्तर-रमण में है। अन्तर गृह की ओर कदम बढ़ाना ही अन्तर-यात्रा है।
अन्तर-शुद्धि जीवन का आन्तरिक संशोधन बाह्य परिवर्तन की औपचारिकता की अपेक्षा नहीं रखता।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[
५
अन्धा अन्धा मात्र प्रकाश को नहीं देख सकता, ऐसी बात नहीं है, वह अन्धकार को भी नहीं देख पाता।
अपराध अपराध चाहे छिपकर हो या सरेआम, जहर तो देर-सवेर अपना प्रभाव दिखाएगा ही।
अपराधी अज्ञानता में किया गया अपराध क्षम्य है। बड़ा अपराधी तो वह है, जो ज्ञानी होते हुए भी गलतियां करता है।
अपराधी न्यायालय में भले ही अपराध-मुक्त घोषित हो जाये, पर अन्तर-आत्मा कभी सुख से सोने न देगी।
अपव्यय जो दिन में दिये जलाता है, वह रात को तेल कहाँ से पाएगा।
अपूर्ण वह मनुष्य अपनी परिपूर्णता में नहीं है, जिसके कदम तो हैं सभ्यता की देहरी पर, मगर मन है, फूहड़, असभ्य, खूखार जंगल के दलदल में।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
अपेक्षा
अपेक्षाएँ रखना मानव का स्वभाव है, किन्तु उपेक्षित होने के बावजूद उद्विग्न न होना जीवन में क्षमा का सौहार्द है ।
६ ]
ग्रपेक्षा - उपेक्षा
मनुष्य को अपनी अपेक्षाएँ दूसरों की बजाय स्वयं से रखनी चाहिये । अपेक्षाएँ उपेक्षित होनी सम्भावित है । किन्तु उपेक्षित अपेक्षाएँ मनुष्य के लिए वातावरण को कलुषित और असन्तुलित बनाती है ।
अप्राप्ति
वह व्यक्ति परमात्मा को कैसे पाएगा, जो जवानी संसार को सौंपता है और बुढ़ापा परमात्मा को ।
अभिनय
सत्य को दबाना और असत्य के लिए जूझना जीवन का अभिनय है ।
अभिलाषा
उस अभिलाषा को प्रणाम है, जिसमें मातृभूमि के प्रति समर्पित होने की आतुरता हो ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[
७
अभिव्यक्ति हृदय की हर अभिव्यक्ति जीवन का मौलिक सृजन है।
अमृत-रक्त वह खून की बूद अमृत है, जो पानी बनने से पहले किसी के प्राण बचाने में सहायक बनी हो।
अरहन्त मठ का महन्त होना हर किसी के लिए शक्य है, वह योगी है, जो जीवन का अरहन्त हो गया।
अवसर अवसर हमारी सहकारिता की प्रतीक्षा नहीं करता। बुद्धिमान वह है, जो अवसर की प्रतीक्षा करता है और अवसर मिलते ही अपना लक्ष्य भेद डालता है।
अविश्राम जब तक लक्ष्य के अन्तिम बिन्दु को न छू लो, तब तक विश्राम न लो।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
असम्बद्धता
जब तुम मन से असम्बद्ध हो, तब तुम बस तुम हो । यही तुम्हारा विशुद्धत्तम अस्तित्व है ।
असलियत
स्वयं की वस्तुस्थिति का मूल्यांकन ही आत्म-समीक्षा है । वह व्यक्ति भिखारी होते हुए भी तहेदिल से सम्राट है, जिसने अपनी असलियत का स्वागत किया है।
अस्पृश्यता
हर चेतना में परमात्मा की आभा है। किसी को अस्पृश्य कहना उस ग्राभा का अपमान है ।
किसी इन्सान को छूकर स्नान करना कुत्सित हृदय की अभिव्यक्ति है ।
खुद को कुछ मानना ही अहंकार की पुष्टि है ।
अहंकार
ग्रहं नमन
अहंकार का मस्तिष्क भुकाने के लिए परमात्मा की उपासना करनी चाहिये ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ S
अहम् - बोध
जहाँ मन का बिखराव शान्त होता है, वहीं अहम् का बोध समग्र हो जाता है ।
अहसान
किसी पर उपकार करने के बाद अपने अहसान के बोझ से उसे दबाना उपकार का गला घोंटना है ।
ग्रहसास
स्वयं के होने का बोध तो अन्धेरे में भी रहता है और अन्धे को भी । ज्योतिर्मय और दृष्टि सम्पन्न वही है, जिसे दूसरों की उपस्थिति और उनके अधिकारों का भी अहसास है ।
अहोभाव
परमात्मा हमारे अहोभाव में पुलकित है । भावनाओं में पलने वाली भक्ति की खुमारी ही उससे प्रेम है । परमात्मा से किया जाने वाला प्रेम अपने लिए प्रभु की सेवा है, विश्व के लिए अहिंसा और करुणा उस प्रेम से सहजतया प्रगट हो जाता है ।
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१०
]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
अाँसू भाषा और शब्द की सीमाएं हैं और आँसू अगाधभावों की अभिव्यक्ति हैं। जहाँ अभिव्यक्ति की सारी विधाएं गूगी हो जाती हैं, वहाँ अाँसू ही अभिव्यक्ति के सशक्त साधन बनते हैं।
आँसू आँखों का कोरा पानी नहीं है, हृदय के उद्गार हैं। यह निर्भार होने का मार्ग है। अाँसुओं को दबाना तो भावों की हिंसा है। गम की ताजपोशगी है।
जहाँ शब्द बौने हो जाते हैं, वहाँ आँसू अभिव्यक्ति के प्रबल दावेदार हो जाते हैं ।
आईना आईना स्वयं के बोध के लिए नहीं, शरीर के शृंगार के लिए है।
प्राकार कीमत अमृत की है, प्याले के रूप की नहीं।
आचार-विचार-भेद चिन्तन क्षमा का और आचरण क्रोध का--यह जीवन का बांझपन है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ११
प्राचार्य वह व्यक्ति प्राचार्य है, जिसका आचरण स्वस्थ विचारों का प्रतिबिम्ब है।
आत्म-उपलब्धि आनन्दमय आत्मा की उपलब्धि विकल्पात्मक विचारों और तर्कों से नहीं हो सकती।
आत्म-कथा अनेकों की आत्म-कथा पढ़ने की बजाय अपनी एक आत्म-कथा पढ़ो। वह तुम्हें अतीत की खबर देगी और सुनहरे भविष्य के लिए संकेत ।
आत्म-कर्तृत्व आनन्द की निष्पत्ति भी स्वयं मनुष्य करता है और तनाव की अनुस्यूति भी हमारी अपनी ही कृति है। जीवन भी आत्म-कर्तृत्व है और जगत भी आत्म-कर्तृत्व । अच्छाबुरा जो कुछ भी है, सब अपना ही प्रतिबिम्ब है।
प्रात्म-च्युति अपने व्यक्तित्व की मौलिकताओं से चूक जाना स्वयं जीवन के प्रति अपनाई जाने वाली बेइमानी है।
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१२ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
प्रात्म-ज्ञान आत्म-ज्ञान की सम्भावना जंगलों में रहने से भी अपने ही भीतर झांकने में ज्यादा है।
आत्म-दर्शन स्वयं के सत्य को पहचानने के लिए किये जाने वाले प्रयत्न से बड़ा तप और कोई नहीं है।
प्रात्म-पृच्छा स्वयं से ही पूछना 'मैं कौन हूँ', जीवन की नींव में अध्यात्म की पहली ईंट रखना है ।
आत्म-मूल्य विश्व-संवेदनाओं को आत्मसात् करने के लिए जीवनमूल्यों को महत्त्व दिया जाना चाहिये ।
आत्म-विजेता उसकी शक्ति को कौन तोल सकता है, जो आत्मविजेता है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ १३
आत्म-विश्वास
आने वाला कल उसकी मुट्ठी है, जो कुछ कर गुजरने के आत्म-विश्वास से लबालब भरा है ।
आदर्श
आदर्शों के निर्वाह का मूल्य समय के मूल्य से कहीं ज्यादा है ।
प्रान्तरिक मूल्य
हमें उन सिद्धान्तों का अमल करना चाहिये, जिनसे आन्तरिक मूल्यों की रक्षा की जा सके ।
आलोचना
आलोचना से मुक्त होने के लिए दूसरों की तो क्या अपनी भी आलोचना नहीं करनी चाहिये ।
आशा
आशा वह डोर है, जिसके सहारे मनुष्य जीता है । जो दूसरों से आशा रखते हैं, वे अपने पैरों में पराधीनता की बेड़िया डाल रहे हैं ।
निराशाओं की रद्दी संजोए रखने से आशा के रत्न हाथ नहीं लगते ।
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१४ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
आशा-अपेक्षा मन का भिक्षा-पात्र दुष्पूर है। मनुष्य को उतनी आशाएं ही संजोनी चाहिये, जो जीवन के लिए अनिवार्य हैं।
प्राशा-निराशा जहाँ आशा नहीं, वहाँ निराशा भी नहीं।
प्रासक्त अन्धा वह नहीं है, जो सूरदास है। अन्धा तो उसे कहा जाना चाहिये, जो आसक्त है।
इंसानियत जिसे इंसानियत से प्रेम नहीं है, वह ईश्वर से प्रेम कैसे कर पाएगा।
जिन्होंने इंसानियत की कीमत प्रांकी है, उनके चरण छूने के लिए देव भी लालायित रहते हैं।
इच्छा इच्छात्रों के वशीभूत होकर भौतिक पदार्थों के लिए जीवन को न्यौछावर करना चैतन्य ऊर्जा का अपव्यय है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ १५
ईमानदार ईमानदार इंसान सृष्टि की श्रेष्ठ रचना है। वह वैभव का मुंह नहीं ताकता। परिश्रम ही उसके सौभाग्य का विश्वास है।
ईश-नाम राम-रहीम और महावीर-महादेव के नामधारी झगड़ों में न पड़कर व्यक्ति को परमात्म तत्त्व की उपासना क जानी चाहिये
ईर्ष्या ___ ईर्ष्या करनी हो तो किसी महापुरुष के बराबर होने की करनी चाहिये
उपकार कृतज्ञ बनाने की भावना से किसी पर उपकार करना, उसकी स्वतन्त्रता के साथ तो छल है ही, स्वयं के लिए भी अपकार है।
उपलब्धि उपलब्धि पूर्ण परिश्रम चाहती है, कम मूल्य पर इसे खरीदा नहीं जा सकता।
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१६ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
उपवास
मानसिक रूप से स्वस्थ रहने के लिए भोजन की तरह कषायों एवं तनावों का भी उपवास करना चाहिये ।
भोजन का त्याग उपवास का एक चरण है । वह व्यक्ति भी उपवासी है, जो कषायों का उपशमन कर रहा है ।
शारीरिक बिमारियों के विरेचन के लिए उपवास अचूक औषधि है।
उपासना
उपासना उपासक को उपास्य के करीब ले जाती है ।
एकता
दसों
बाहर से टूटकर भी भीतर से एक रहो । पौधे पर फूल अलग-अलग हैं, पर जड़ सबकी एक है ।
एकाग्रता - सोपान
चित्त की एकाग्रता के लिए जीवन में आवश्यकताओं की परिमितता, समदर्शिता तथा सर्वत्र मांगल्य देखने की शुभ दृष्टि पूर्व सीढ़ियाँ हैं ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ १७
कथनी-करनी जो कहना है, पहले उसे कर लें। बिना आचरण में आए दिया जाने वाला उपदेश थोथे चने की आवाज है।
करनी इंसान खुद ही केले के छिलके गेरता है, फिर उन्हीं पर फिसलकर रोता है।
कर्तव्य-पथ कर्तव्य-पथ पर अपने पाँव बढ़ाना ही कृतयुग का द्वारोद्घाटन है।
कर्म-गणित पुण्य पाप से बेहतर है, पर कर्म की रेखा तो पाप की तरह पुण्य भी है। पुण्यात्मा होना अच्छी बात है, पर कर्म-मुक्त शुद्धात्मा होना जीवन की भव्यता है।
कर्मफल यदि कर्म तुम्हारा अधिकार है, तो फल की कामना अनधिकार नहीं है।
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१८ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
कर्मयोग कर्मयोग मानव-विकास का आधार है। जहाँ हैं, उससे दो कदम आगे बढ़ना ही कर्मयोग है।
परिणाम की परवाह न कर । कर्म को ढीला न कर । सफलता की आशा के साथ कर्मयोग में जुटा रह, पता नहीं इस संसार में तुम्हारे लिए कब सौभाग्य का सूर्योदय हो जाये।
कर्मानुवृत्ति आज एक अच्छा काम किया, तो कल फिर उसे दोहराने का संकल्प करें।
किताब किताबें मनुष्य को पण्डित बना सकती हैं, किन्तु यह जरूरी नहीं है कि पण्डित चारित्रशील हो।
कृतघ्नता ___ इंसान की यही कृतघ्नता है कि वह स्वयं को उस कंधे से भी ऊँचा समझने लगता है, जिस पर वह टिका है ।
केन्द्रीकरण संसार की चलती हुई चक्की में अखण्ड वही रहता है, जिसने अपने-आपको आत्मकील पर केन्द्रित कर रखा है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ १६
क्रोध एक दिन के भोजन की पौष्टिकता एक बार किये जाने वाले क्रोध से राख हो जाती है ।
क्रोध-पछतावा क्रोध जहाँ चित्त को उत्तेजित और भारी भरकम करता है, वहीं पछतावा चित्त को हल्का करने का प्राधार है।
क्षण-भंगुरता जिन्दगी की पतंग उड़ाने का अपना आनन्द है, किन्तु इस बात से सदा जागरूक रहना चाहिये कि डोर हाथ से कभी भी फिसल सकती है।
क्षमा समर्थ होने पर भी, उपेक्षित होने के बावजूद, क्रोध न करना क्षमा है।
ख्वाब उन्हें असफलताएँ झेलनी पड़ती हैं, जो बिना श्रम के रातों-रात लखपति बनने का विचार करते हैं।
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२० ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
___ गंगा-स्नान गंगा-स्नान का अर्थ चित्त प्रक्षालन है। गंगा में डुबकी लगाने के बाद भी जैसे थे, वैसे ही रह गये, तो गंगा स्नान चित्त की बजाय मात्र देह का मैल धोना होगा।
गति प्रगति वह गति निर्मूल्य है, जो प्रगति शून्य है।
गर्दभ-बुद्धि हर गधे की बुद्धि एक-सी नहीं होती है। रूई के भार को पानी में डुबाकर दुगुना करने वाले गधे भी होते हैं तो डुबकी खाकर नमक के भार को हल्का करने वाले भी।
गुरु-पहचान सद्गुरु की सही पहचान तो वे ही कर सकते हैं, जिन्हें हँस की छलनी लगी दृष्टि मिली है।
गुरु-शक्ति वह गुरु क्या जो अमृत की अभिप्सा न जगा सके ।
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[ २१
गृह-शान्ति
पारिवारिक झगड़ों को रोकने के लिए उपस्थित होते हुए भी स्वयं को अनुपस्थित समभो । काश, अभी मैं घर में न होता, जो यह सोचकर शान्त रहता है, वह कलह और कोलाहल से कोसों दूर रहता है ।
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
गोली
वह गोली बेवफा है, जो प्राणी का प्रारण हरती है और वह गोली दवा है, जो मरीज को प्राण लौटाती है ।
चांटा
अगर चांटे का जवाब चाँटे से दिया जाता तो यीशू 'ईसा' न बन पाते ।
चारित्र - समाधि
विषय सुखों से मुँह मोड़कर निष्किचन होने के बाद भी परितुष्ट रहना चारित्र - समाधि है ।
चारित्र हत्या
चारित्र को किताबों की शोभा मात्र मानकर जीने वाला व्यक्ति वास्तव में चलता-फिरता शव है ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
चित्त
चित्त की चंचलता की परीक्षा के लिए ध्यान
२२ ]
कसौटी है ।
चित्त- कालुष्य
कलुषित चित्त कभी अहोभाव प्राप्त नहीं कर
सकता ।
चुनौती
चैतन्य तत्त्व उद्घाटित करने के लिए चुनौतियों का सामना तो करना ही पड़ेगा ।
जन्म और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ।
जन्म-मृत्यु
जल्दबाजी
जल्दबाजी कभी - कभी हानि का कारण बनती है ।
जागृति
किसी को तभी जगाना चाहिये जब जगने के प्रति जिज्ञासा हो ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ २३
जीवन उस जीवन को जीवन कैसे कहा जाये, जहाँ ईंधन में आग नहीं, मात्र धुपा ही धुपा है ! जीवन तो दीप का जलना है, बाहर-भीतर एक रूप होते हुए ज्योतिर्मय होना है। ___ प्रभु तब तक जीवन दे, जब तक हाथ-पाँव चलते रहें।
जीवन अोस की बूंद है। पता नहीं कब गिर जाये। उसका बने रहना ही हमारा सबसे बड़ा सौभाग्य है।
वही जीवन जीवन है, जिसे कलाकार ने कला के लिए जीया है।
जीवन-दर्शन मनुष्य को जीवन-दर्शन के प्रति निष्ठावान् रहना चाहिये । प्रात्म-दृष्टि की निर्मलता के साथ अपने व्यवहारों का संवहनन करना जीवन-दर्शन की आधारशिला है।
जीवन-मूल्य जीवन-मूल्य ही व्यक्तित्व की सही गरिमा है । जीवनमूल्य की सीमाओं का उल्लंघन करना स्वयं जीवन से ही अतिक्रमण है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
जीवन-यात्रा
बुढ़ापे के बाद जीवन परिवर्तित होता है तथा किसी दूसरे स्थान पर जाकर पुनः बालक के रूप में प्रगट हो जाता है । गर्भ से जन्म, जन्म से जवानी और बुढ़ापे की ओर चलने वाली यात्रा मृत्यु के द्वार से गर्भ की ओर वापसी है ।
२४ ]
जीवन-सौरभ
किसी फूल में दुर्गन्ध न होना सामान्य बात है । अभिनन्दन है उस फूल का, जिसने सुगन्ध पायी है ।
जीवन-स्मृति
जीवन का प्रतीत उपन्यास के पढ़े हुए पन्नों की तरह है । मरते वक्त मनुष्य के पास जीवन के नाम पर सिर्फ स्मृतियों की पोटली ही शेष रह जाती है ।
जीवन्तता
जीवन्तता शून्य जीवन किसी भी हालत में मौत से बेहतर नहीं है ।
जीवैषणा
यह कैसा आश्चर्य है कि अंग गल गये, दांत गिर गये, बाल बदल गये फिर भी जीवैषरणा जिन्दी है ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ २५
ज्ञान-ज्योति ज्ञान-ज्योति को घर-घर में प्रज्वलित करना, परमात्मा के बनाये जाने वाले मन्दिरों से कम नहीं है।
ज्ञान-समाधि श्रुत के अध्ययन/मनन में तन्मयता एवं अतिशय रस की उद्रेकता, ज्ञान-समाधि है।
ज्ञानी वही ज्ञानी है, जिसने 'सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम्' की आन्तरिक झाँकी देखली है।
ज्योतिर्मयता उस दीप की ज्योतिर्मयता ही महान् कही जाएगी जो अपने साहचर्य से अगणित दीयों को ज्योतिर्मय करती है।
अच्छाइयों को कल पर टालने वाला बुराइयों से कभी मुक्त नहीं हो सकता।
टालना अच्छाइयों को कल पर टालने वाला बुराइयों से कभी मुक्त नहीं हो सकता।
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२६ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
__ ठोकर
ठोकर लगने के बावजूद सावचेत न होने से बड़ा अज्ञान और कोई नहीं है।
डरपोक वे डरपोक हैं जो पंख लगने के बावजूद उड़ने से कतराते हैं।
डींग मूछ पर ताव देने वाला अगर पिल्ले से ही डर जाये, तो यह कायर द्वारा बहादुरी की डींग हांकना मात्र है।
ढुलमुल-यकीन ढुलमुल यकीन से जब खुद को ही नहीं पाया जा सकता, तो खुदा को कैसे पा सकेंगे।
तटस्थता मन का नाला राग और द्वष के दो किनारों के बीच बहता रहता है। मनीषी वह है, जो वृक्ष की तरह तटस्थ है।
साक्षी-भाव पाने के लिए दृश्य को ऐसे तटस्थ बनकर देखो जैसे कैमरे की अाँख ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ २७
विजय अहंकार और पराजय, वैर एवं उत्तेजना को प्रोत्साहित करती है। दोनों परिस्थितियों में स्वयं को तटस्थ रखना आत्म-शांति के लिए पहल करना है।
तन-मन-सम्बन्ध शरीर में पैदा होने वाली उत्तेजना मन को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकती। शराब भले ही शरीर पिये, पर अनर्गलता और मदहोशी तो मन पर भी छाती है।
तनाव-ग्रस्त तनाव से मुक्ति और शान्ति की प्राप्ति न केवल हमारा लक्ष्य है, जीवन की जरूरत भी है।
तनाव-मुक्ति उत्पन्न तनाव से तत्काल मुक्त होने का प्रयास न किया, तो वह तनाव ही तुम्हारे लिए फांसी का फंदा बन बैठेगा।
तनाव से मुक्त होने के लिए हमें सबसे पहले उस बिन्दु को ढूढ़ना होगा, जहाँ से इसका लावा फूटकर निकलता है।
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२८ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
तप मक्खन को तपाने के लिए पहले तपेले को तपाना होगा।
देह-दण्डन ही तपश्चर्या नहीं है, अपितु ज्ञानपूर्वक आत्मशोधन के लिए की गई साधना भी तपश्चर्या ही है। तपस्या का उद्देश्य मन एवं विचारों की विशुद्धता है ।
तप शरीर को निचोड़ना नहीं है, अपितु स्वास्थ्य-लाभ का ही एक अनुष्ठान है।
तप की मौलिकता को ठुकराना नहीं चाहिये। शानप्रो-शौकत से जीना हमारी संस्कृति भले ही बने, किन्तु उनके उपयोग में अपनाई जाने वाली सीमा हमें अशान्ति से दूर रखेगी। ___ जीवन की प्रत्येक प्रतिकूल स्थिति में भी स्वयं को संतुलित बनाए रखना ही तपस्या की व्यावहारिकता है।
तप-ताप ___ दुःख बुद्धि से दुःख को ग्रहण करना ताप है और सुख बुद्धि से दुःख को ग्रहण करना तप है ।
तपःसमाधि साधनागत जीवन में आने वाली आपदाओं से उद्विघ्न न होना तपः समाधि है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ २६
तपस्वी उपवास करने वाला व्यक्ति तो तपस्वी है ही, वे लोग भी तपस्वी हैं, जो ज्ञान-उपार्जन, परमात्म-सेवा एवं मानवता के सम्मान के लिए समर्पित हैं।
तृष्णा जो हो रहा है वह स्वभाव है। उसके अतिरिक्त की अाशा मन की तृष्णा है। प्राप्ति में तृप्ति ही तृष्णा से मुक्ति है।
तृष्णा-मुक्ति तृष्णा से अपने आपको मुक्त करना न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से उत्तम है, बल्कि जीवन की ऊर्जा को गलत रास्ते पर जाने से रोकना भी है।
त्याग छोड़कर भी कहाँ छोड़ पाया, अगर त्याग का अहं दिल में बसाये रखा।
दर्शन दर्शन जीवन का सम्पूर्ण विज्ञान है। यह आत्मा से लेकर सम्पूर्ण विश्व का प्रतिबिम्ब है। तर्क को दर्शन का आधार मानना वाकयुद्ध का प्रतीक है।
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३० ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
कानों से सुनी हुई बात को तब तक निपट सच्चा नहीं माना जाना चाहिये, जब तक उसे आँखों से देख न लिया जाये।
दर्शन-समाधि तत्त्व-दर्शन में बुद्धि का निर्धम/निष्कम्प होना दर्शन-समाधि है।
दहेज दहेज के नाम पर बहू को पीड़ित करने वालों को यह नहीं भूलना चाहिये कि उनकी बहिन-बेटी भी कहीं बहू बनेगी।
दिल हृदय के रेगिस्तान में फूल खिलाने के लिए समर्पित दिल की दो बूद ही काफी है।
देह
देह माँ की भेंट है। हमारा मूल तो देह के पार है।
देह-आसक्ति उस देह पर कैसा अधिकार जो मरणधर्मा है। शरीर पर हमारा अधिकार-भाव समाप्त करने के लिए एक मच्छर ही काफी है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ३१
दोगलापन मुख में राम और बगल में छुरी की परम्परा का निर्वाह न केवल व्यक्ति बल्कि समाज के लिए भी घातक है।
धर्म
धर्म की जीवन्तता को चूनौती नहीं दी जा सकती। वह विस्मृत हो सकता है पर विनष्ट नहीं ।
धर्म व्यक्ति को मानवता का सम्मान करना सिखाता है। वह किसी के प्राण लेने का निर्देश नहीं देता।
धर्म आचरण की वस्तु है, साम्प्रदायिक व्यामोह बांधने का मार्ग नहीं । सदाचार और सद्विचार की प्रेरणा ही धर्म का व्यक्तित्व है।
धर्म राष्ट्र-विकास का मार्ग प्रशस्त करता है, उसके विभाजन का नहीं।
ध्यान बिखरती ऊर्जा का केन्द्रीयकरण ही ध्यान है। ध्यान का संकल्प दुनिया भर के विकल्पों से मुक्त होने का आधार है।
संसार के लिए वही ध्यान ज्यादा जीवन्त है, जो हमें शून्यता की बजाय जीवन्तता और प्रगति के मार्ग सुझाए ।
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३२ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
ध्यान भीतर की अलमस्ती है, अन्तर आँखों का उन्माद है और जीवन के द्वार पर प्रतिक्रमण है ।
ध्यान-समाधि
चित्त का प्रक्षुब्ध न होना ही ध्यान है और उसका प्रसन्नता से भरपूर हो जाना समाधि है ।
नम्रता
नम्रता जीवन की वह अनिवार्यता है, जो घड़े को पानी से सराबोर करती है ।
नवकर्म
किये हुए को ही करते रहना लीक पर चलना है । कुछ नया होने- बनने के लिए नये मार्ग का निर्माण अपरिहार्य है ।
नियति
नियति की रेखाओं को मिटाने के लिए उठने वाली गुली ही मिटती है, फिर चाहे वह अंगुली चक्रधर की भी क्यों न हो ।
जिसने नवजात के पेट में भूख रखी, उसी ने माता के स्तन में दूध रखा ।
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रोमा रोम रसा. पीजे मलितप्राम
[ ३३
निर्ग्रन्थ । जो बाहरी और आन्तरिक बन्धना के कारणों को छोड़कर स्वयं की यात्रा में लगा है, वह निर्ग्रन्थ है।।
निलिप्तता संसार में वैसे ही निलिप्त रहो,' जैसे कीचड़ में
कमल ।
निर्वाण-पथ मुक्ति का प्रयास उस संसार से अलगाव है, जिसका निर्माण एवं सिंचन मनोकेन्द्र से सम्बद्ध है। स्वयं को वासना रहित करते हुए विराट होने का प्रयास ही जीवन में निर्वामिण की बागवानी है।
निवास हमारा निवास वहाँ हो, जहाँ सुबह उठते ही मंदिर का घंट सुनाई दे, और रात को सोते समय भगवान के भजन ।
HIR
निश्छलता बच्चो-सी निश्छलता: पारमात्मा के राज्य का प्रवेश द्वार है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
नेकी/बदी
नेकी करें, बदी से टलें — अगर जीवन को प्रेम के
३४ ]
फूलों से भरना हो ।
पड़ौसी से पुत्र जैसा ही प्यार करें ।
परानन्दा
किसी दूसरे की ओर अंगुली उठाने से पहले जरा ये देखो, शेष तीन अंगुलियां किधर हैं ।
पडौसी
परमात्म-खोज
मात्र पढ़-सुनकर की जाने वाली परमात्मा की खोज अधूरी है । खोज हृदय से पूरी होती है, बुद्धि के पांडित्य से नहीं ।
परमात्म-प्रेम
परमात्मा उसी का है, जिसके हृदय में परमात्मा के लिए प्रेम है ।
परमात्म-भूमिका
शरीर परमात्मा का मन्दिर है और आत्मा की विशुद्धता परमात्मा की पूर्व - भूमिका है ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ३५
परमात्म-स्मरण परमात्मा का स्मरण इसलिए, ताकि संकट और संघर्ष में व्यक्ति के कदम नैतिकता से कभी स्खलित न हो।
वह व्यक्ति परमात्म-अनुभूति कैसे कर पाएगा जो दुःख में उसे याद करता है और सुख में भूल जाता है।
सुख में परमात्मा को वही पुकार सकता है, जिसने सुख की व्यर्थता भी जान ली है।
परमात्मा आत्मा की विशुद्ध अवस्था ही परमात्मा है ।
__ परम्परा वह परम्परा किस काम की, जो धर्म को लंगड़ा कर दे।
परिवर्तन कपड़ों को रंगाने से क्या हुआ, जब मन ही न रंगा हो!
पात्रता बिना पात्रता के परिणाम कैसा ? आखिर ज्वर-ग्रस्त को मीठा रस भी फीका ही लगेगा।
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रोम रोम रस. पीजे. ललितप्रभ
पाप-प्रक्षालन पापों के प्रक्षालन के लिए, मन्दिर और तीर्थों का सहारा लिया जाता है, किन्तु जो पवित्र स्थलों में भी पाप करता है, उसके लिए मुक्ति का सहारा और कहाँ होगा।
पार्थक्य मानव जाति के बीच वर्ग, वर्ण व पंथ की दीवारें खड़ी करना, अपने ही हाथों से स्वयं के पाँवों को क्षत-विक्षत करना है।
पीड़ा पीड़ा का मूल स्वरूप पहचानने के बाद सुख की कोई अभिलाषा नहीं रह पाती।
पुनर्प्रकाश धर्म की उन बातों को पुनर्-उजागर करना चाहिये, जितसे समाज की वर्तमान समस्याओं का निपटारा हो
सके।
पुरुषार्थ । संभावनाओं से साक्षात्कार करने के लिए स्वयं को पुरुषार्थ करना आवश्यक है। गुरु प्यास की बोध करा सकता है, पर प्यासा नहीं बना सकता।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रेभं
।। ३७
पूर्व-जागृति कांटों से क्षत-विक्षत हाकर घाव भरने से तो अच्छा यही है कि अपने आपको कांटों के पास ही न ले जाएं।
पैसा पैसा बहुत कुछ कर सकता है, पर सब कुछ नहीं।
प्यास पानी का मूल्य उतना ही अधिक होगा, जितनी तीव्र प्यास होगी।
प्यासे नयन वे अंखियाँ ही प्यासी हैं, जिनसे नीर अविरल बहता है।
प्रतिक्रिया क्रियाएं बन्धनों का कारण नहीं बनती, बन्धनों की बुनियाद तो प्रतिक्रियाएं हैं।
प्रतिस्पर्धा .. प्रात्म-विजय प्रतिस्पर्धा में पायी जाने वाली विजय से बेहतर है।
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३८ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
प्रमाद लक्ष्य की प्राप्ति से पूर्व आने वाला प्रमाद उतना ही अनुचित है, जितना प्रस्थान के समय आने वाली छींक ।
सीढ़ियों पर बैठे रहने से मंजिल हाथ नहीं लगा करती।
प्रमाद-त्याग प्रमाद की जंजीरों को तोड़ने के बाद ही ध्यान-समाधि की ओर कदम गतिमान हो सकते हैं।
प्रशंसा पेट की भूख का अहसास दिन में दो बार होता है, किन्तु प्रशंसा की भूख तो सपने में भी जग जाती है।
प्राप्त प्राप्त में तृप्त होना जीवन का रचनात्मक पहलू है।
प्रार्थना सच्ची प्रार्थना पत्थर में भी परमात्मा को पैदा कर देती है।
प्रार्थना में परमात्मा से की जाने वाली शिकायत प्रार्थना के महत्त्व को कम करना है। हमें जो कुछ मिला पात्रता से अधिक मिला है।
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[ ३९
प्रेम
जो जकड़ प्रेम के धागों में है, वह लोहे की जंजीर में नहीं ।
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
प्रेम ही तो जीवन्तता की वह पहली निशानी है, जिसके पदचिह्नों पर समाज चलता है । बगैर प्रेम का न केवल समाज सूना है, वरन् जीवन भी श्मशान है ।
प्रेम-सद्भाव
सिवा प्रेम और सद्भाव के इस दुनियाँ में है ही क्या, जो किसी को शाश्वत रूप से दिया जा सके ।
फल-भेद
सारे वृक्ष एक ही माटी से उत्पन्न होते हैं । फलों में होने वाला विभेद बीज के संस्कार के कारण है ।
बन्धन और मुक्ति
बन्धन और मुक्ति मात्र साधना और विराधना से नहीं है, वह तो जीवन की हर सांस से जुड़े हैं । कुछ लोग संसार में रहते हुए भी मुक्त हो जाते हैं ।
बुढ़ापा देह को आता है, दिल को नहीं ।
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बुढ़ापा
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४० ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
बेवकूफ बेवकूफ स्वयं को चाहे जितना समझदार मान ले. पर बेवकूफ से बेवकुफी के सिवाय और कोई उम्मीद नहीं की जा सकती।
ब्रह्मचारी गुफा में रहकर ब्रह्मचारी हो जाना उतना कठिन नही है, जितना वेश्यालय में रहकर निष्कल्प रहना ।
भक्त भक्त वह है, जो बिखरी हई ममता को समेटकर एक चरण में न्यौछावर कर दे।
भक्ति भक्ति हो वह साधन है, जो धर्म और अध्यात्म को नीरस होने से बचाती है।
भगवद्-स्मरण संकट आने के बाद भगवान को याद करने की सोचना अर्थहीन है। भगवान को तो सदा स्मरण रखना चाहिये, संकट की प्रतीक्षा किये बगैर ।
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रोम रोम रम पीजे : ललितप्रभ
[ ४१
भलाई खुदा सत्र करने वालों का माथ निभाता है. जब करने वालों का नहीं।
भविष्य भविष्य के सुनहरे स्वान देखकर वर्तमान को नरक नाहना भविष्य को दरिद्र बनाना है।
भाई-बहिन यदि दुनियाँ में भाई और बहिन का सम्बन्ध न होता, तो शायद पवित्रता अपना मुह दिखाने लायक भी न होती।
भाग्य कम समय में अधिक सफलता पुरुषार्थ पर भाग्य की कृपा है।
भाव भाव यदि लचीले हों, तो शब्दों की कठोरता भी अानन्ददायिनी माँ होती है।
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४२ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
भाव-भेद बिल्ली अपने दाँतों से चूहे को भी पकड़ती है और अपने बच्चे को भी । परन्तु एक हत्या है और दूसरा प्रेम ।
भाव-मिथ्यात्व बगुला मानसरोवर में मीन ही ढूढ़ेगा, मोती नहीं।
भाव-विरक्ति बाहर के त्याग तब तक अपनी सार्थकता सम्पादित नहीं कर पाते, जब तक भाव-विरक्ति रोशन न हो।
भिक्षु भिक्षु वह है, जो हर आसक्ति और प्रमत्तता का क्षय करने में तन्मय रहता है।
भूखा भूखा भगवान को कैसे भजेगा। भूखे का भगवान तो भोजन ही है।
भूल
भूल यह घाव है, जिससे अगर मवाद निकाल दिया जाये, तो मरहम-पट्टी जल्दी कामयाब हो सकती है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ४३
भूल होना बुरा नहीं है, किसी भूल का दुबारा होना
बुरा है ।
भूला भटका
उसे
सुबह का भटका अगर सांझ तक भी लौट आये तो दुत्कारना नहीं चाहिये ।
क्रोध मानवीय व्यवहार के लिए मधुर- वार्तालाप अपनी ओर से पेश पुष्पाहार है ।
मध्यम मार्ग
वीणा के रसवन्ती तार इतने निर्मम न कसे जायें कि वे टूट जायें और इतने ढ़ीले भी न छोड़े जायें कि स्वर का संसार ही डूब जाये ।
मधुर- वार्तालाप कलंक है; वहीं किया जाने वाला
मन
मन की विक्षिप्तता पागलपन है और मन की स्वस्थता सम्बोधि की पहल है ।
मन दुष्पुर है, यदि सकता, तो हर भिखारी होता ।
सफियों से ही वह भरा जा मरते दम तक सम्राट अवश्य
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४४ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
मनः कर्तृत्व
शत्रुता एवं मित्रता के दायरे स्वयं व्यक्ति की ही देन है । किसी व्यक्ति विशेष को सम्बन्ध का आधार मानना मात्र निमित्त है । सम्बन्धों का वास्तविक जाल तो हमारे ही मन की बदौलत है ।
श्रवरण हो एक मन, मनन हो दस मन ।
पैदा नहीं तो पात्र कैसे भरेगा ।
मनन
मनोपयोग
ध्यान मन का सदुपयोग है, संसार मन का दुरुपयोग है।
मनोगत
मनोमुक्ति
मन की मृत्यु ही योग की अभिव्यक्ति है । वह व्यक्ति धन्य है, जो मन से मुक्त है ।
मनोसंसार
वह संसार क्षण-भंगुर है, जिसकी सृष्टि हमने और हमारे मन ने की है ।
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राम राम रस पोज : ललितप्रभ
[ ४५
मनोसम्बन्ध मन न मित्र है, न शत्रु । उसके साथ मित्रता रखने वाले के लिए वह मित्र है और शत्रुता रखने वाले के लिए शत्र।
मन्दिर-नियम मन्दिर में प्रवेश से पूर्व अनर्गलता की गठड़ी को वहीं छाड़ दो, जहाँ जूते खोले हैं ।
मरण-परिवर्तन
शरीर मरता है, मन बदलता है ।
मरणोपरान्त मृत्यु के बाद शव को सजाना नाटकीयता है, किन्तु जीते जी दिया जाने वाला प्रम मानवीय जीवन्तता है।
मांगना अगर भांगने से ही मिलता होता, तो भिखारी माँगमाग कर सम्राट बन जाला ।
माँ
बेटा बाप से बढ़कर हो सकता है, लेकिन माँ के चरण चूमने के लिए बेटे के होंठ सदा प्यासे रहते हैं ।
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४६ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
माता-पिता माता-पिता की उपेक्षा करने वाला विश्व के प्रथम तीर्थ की अवहेलना कर रहा है।
मातृ-प्रेम माँ के हाथ का अगर जहर भी पीने को मिले, तो वह भी प्रेम से आपूरित होगा।
मानवता मानवता विश्व की सबसे बेहतरीन नीति है। मानवता के मूल्यों से जीवन की समग्रता जोड़ना अपने कर कमलों से विश्व को अभिनन्दन-पत्र प्रदान करना है।
अगर मानवता के मन्दिर ढह गये, तो परमात्मा कहाँ शरण लेगा।
मानवीय समानता व्यक्ति को मानवीय समानता पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिये । पुरुष, स्त्री, वर्ग व वर्ण को लेकर किया जाने वाला भेद-भाव हमारी प्रांतरिक हीनता की अभिव्यक्ति है।
मानसिक तप उपवास शारीरिक तप है, किन्तु बुरे विचारों से स्वयं को दूर रखना मानसिक तप है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ४७
मितभाषी कम बोलना मुसीबतों को अोछा करना है।
मुक्ति-मार्ग मुक्ति का मार्ग संसार के प्रति विद्रोह नहीं है, बल्कि संसार के प्रति स्वयं के राग-द्वेष मूलक भावना की कटौती है। संसार के सरोवर में खुद को कमल की तरह निर्लिप्त रखना ही मुक्ति-मार्ग की पृष्ठ-भूमिका है।
मुनि-जीवन मुनि-जीवन पुरुषार्थ-सिद्धि से सर्वार्थ-सिद्धि की सफल यात्रा है।
मुसीबत बड़ी मुसीबत आने पर छोटी मुसीबतें ठीक वैसे ही गौण हो जाती हैं, जैसे हड्डी टूटने पर फोड़े का दर्द ।
मूढ़ता सद्गति का मार्ग जानने के बावजूद उससे विपथ होना मूढ़ता है।
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राम राम रस पीज : ललितप्रभ
वह व्यक्ति मूर्ख है, जो हाथी की तरह नहाकर पुनः अपनी पीठ पर मिट्टी डालता है।
मत्यु
मृत्यु मात्र जीवन के चोले का परिवर्तन है। चोला बदलने से जीवन की ध्र वता नहीं खोती। _मौत का तूफान आत्मा की ज्योति को कभी बुझा नहीं सकता, क्योंकि जो बुझ रहा है और मृत्यु को प्राप्त हो रहा है, वह आत्मा नहीं, देह है ।
मृत्यु जीवन का गहनतम केन्द्र है। उसकी गहनता को वे लोग ही पहचान पाते हैं, जो होश में रहकर स्वागत भरे भाव से मुत्युलोक में प्रवेश करते हैं।
सम्यक् जीवन से निःसृत मृत्यु भी परम उत्सव है। साधक के लिए यही चरमोत्कर्ष है ।
वह मृत्यु भी जीवन है, जो कर्तव्य-पालन के क्षणों म पायी है। ___ पड़ौसी की मृत्यु हमारे लिए जीवन की कसौटी है। दूसरे की मृत्यु पर अाँसू ढुलकाए जाते हैं, पर वास्तव में यह हमें अपनी मृत्यु की पूर्व सूचना है।
मृत्यु-दर्शन
मरते हुओं को सभी देखते हैं, सम्बुद्ध पुरुप तो वह है. जो मृत्यु को देख लेता है ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ४६
मेरापन
'मेरा' अज्ञान का आधार है । 'मेरा' गिरते ही आत्मा प्रगट होती है और 'मैं' के झुक जाने पर परमात्मा ।
मोक्ष
मृत्यु का मरण ही मोक्ष है।
मौन
उपद्रवग्रस्त वातावरण में मौन और शान्ति की उपलब्धि नरक में भी स्वर्ग की अनुभूति है।
मौन होठों का गूगापन नहीं, वह अन्तर-ऊर्जा के सम्पादन की कला है।
योग
मन का अवसान ही योग है।
योजना योजना बन जाने मात्र से यह सोच लेना कि प्राधा काम तो बन गया, वास्तविकता से हटकर मात्र हवा में छलांग लगाना है।
रवानगी
जो रवाना हो गया, वह पहुँचेगा ही।
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५० ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
राखी राखी के धागे दो कौड़ी के होते हैं। अभिनन्दन है उस साधना का, जिस प्रेम के मन्त्र से वे अभिमन्त्रित होते हैं।
राग-द्वेष राग शराब की प्याली है और द्वेष जहर की।
राग और द्वष मन के ही विकल्प हैं, आज जिनसे जुड़े हो, कल उन्हीं से टूट जाते हो।
राग-विराग-वीतराग राग संसार है। विराग संन्यास है और वीतराग मोक्ष है।
राजनीति किसी बुरे कृत्य को और अधिक बुरे कृत्य से विनष्ट करना राजनीति का अंधापन है।
राह गलत राहों पर चलकर सही मंजिल तक नहीं पहुँचा जा सकता।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ५१
रोशनी रोशनी अंधेरे में आ सकती है, पर अंधेरा रोशनी में नहीं जा सकता।
रोशनी को अन्धेरे के हाथों बदनाम होने देना स्वयं के आत्म-सम्मान के लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
लंघन स्वास्थ्य-लाभ के लिए जितना आहार का लंघन उपयोगी है, उतना ही कषायों का भी।
लक्षित लिखित को नकारा जा सकता है, पर लक्षित को नहीं।
लाभ लाभ की अधिकता लोभ को बढ़ोतरी है। अलाभ में लोभ का अस्तित्व कभी नहीं देखा जा सकता।
वचन-वीर वे लोग समाज के लिए कलंक हैं, जो धर्म की ऊँची बातें करते हैं, पर स्वयं चरित्रहीन हैं ।
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५२ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रम
वर्तमान-जीवी अतीत और भविष्य में जीना माया है, वर्तमान में जीना ब्रह्म-विहार है।
वासना-साधना वासना दूसरे में सुख की प्राशा है और साधना स्वयं में सुख की खोज यात्रा है।
विचार-मुक्ति मस्तिष्क में हर समय विचारों की हेराफेरी मानसिक रुग्णता है। विचारों के जंगल से ठीक वैसे ही पार हो जाओ, जैसे जंगल से रेलगाड़ी।
विजय उस व्यक्ति से विजय कितनी दूर है, जिसे मौत की परवाह नहीं है।
विनाश-विकास आगे बढ़ना तुम्हारा धर्म है, पर किसी को मिटाकर नहीं।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ५३
विभाजन खुदा और ईश्वर के नाम पर मानव-जाति का विभाजन मानवीयता का अतिक्रमण है।
वियोग प्रेम की गहराई का वास्तविक अंदाजा वियोग में ही होता है।
अपने प्रियतम से जितने दूर हो जानोगे, उतने ही पास आने का मजा होगा। जितनी कंठ में प्यास होगी, पानी मिलने पर उतनी ही तृप्ति होगी।
विलम्ब आवेश के क्षणों में अभिव्यक्ति में किया जाने वाला विलम्ब सद्व्यवहार और विवेक को बनाये रखने में कारगर साबित हो सकता है।
विवशता जुल्मों का तब तक मुकाबला नहीं किया जा सकता, जब तक पाँवों में विवशता की बेड़ियाँ हैं।
विवेक धर्म को जब विवेक की अग्नि दी जाती है, तब वह सत्य और शक्ति का उद्भावक हो जाता है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
विश्व- मैत्री
जगत् को मित्र की तरह देखने से ही विश्व - मंत्री का आदर्श स्थापित हो सकता है ।
५४ ]
विश्वासघात
किसी के घर रोटी खाने के बावजूद उसके साथ विश्वासघात करना दुनिया का सबसे बड़ा पाप है ।
विस्मरण
अतीत की दुखद घटनाओं का विस्मरण सुखद भविष्य की पहल है ।
अतीत और भविष्य का विस्मरण ध्यान में प्रवेश है । अतीत की स्मृति और भविष्य की कल्पना करना अपने हाथों स्वयं को जंजीर से जकड़ना है ।
बीती बातों को भूल जाना चित्त को तनाव से हल्का करने का प्रयास है।
वीतरागता
वीतरागता राग के विपरीत संस्कार नहीं है, अपितु राग-द्वेष की निःसारता का परिणाम है ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ५५
वीर दो वीरों पर यदि सौ कायर टूट पड़े, तो मातहत कायरों को ही होना पड़ेगा।
वृत्ति
वृत्ति मन के सरोवर में उठी लहर है।
नश्वर तत्त्वों के लिए छितराती चित्तवृत्तियां व्यक्तित्व विकास में बाधक है।
वृत्ति-विजय मन की प्रवृत्तियों पर विजय पाने के लिए अहंकार का विसर्जन, तृष्णा का बोधन और माया एवं लोभ का परिशमन अनिवार्य है।
बूढ़ा वह नहीं है, जिसको कमर झुक चुकी है। बूढ़ा वह है, जो मेहनतकशी से जी चुराता है।
वेश वेश से ही जिन्दगी बदल जाती होती, तो सारे गधे शेर की खाल अोढ़ लेते।
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५६ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
वैमनस्य
वैमनस्य अमृत को भी जहर बना देता है।
वैर मनुष्य का जीवन पेड़ के पत्ते पर पड़ी प्रोस-बूद की तरह है। जीवन की इस छोटी-सी पगडंडी पर दुश्मनों की कतार खड़ी करना अज्ञानता है ।
वैर से वैर ठीक वैसे ही शान्त नहीं होता, जैसे स्याही से सना वस्त्र स्याही से साफ नहीं होता।
वैराग्य घर-बार छोड़कर संन्यासी हो जाना वैराग्य का बौना रूप है। वैराग्य की वास्तविकता विचारों से वासना का निष्कासन है।
व्यक्तित्व-विकास व्यक्तित्व का विकास करने के लिए आवश्यक है कि हम दूसरों के अपराधों को क्षमा करें तथा स्वयं अपराधों से दूर रहें।
व्यसन व्यसन मृत्यु का निमन्त्रण है। यह वह बेड़ी है, जो व्यक्ति को जीवन के आदर्शों की ओर जाने से रोकती है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ५७
व्यसन व्यक्ति की प्रात्म-जागृति एवं प्रज्ञा शक्ति का हनन कर देता है।
व्याधि तन की हर व्याधि में मन की समाधि को अविचल बनाए रखना साधना की नींव है।
व्यापकता चिमनी लेकर जिसे ढंढ़ रहे हो उसकी व्यापकता चिमनी में भी है।
व्यावहारिक-तप अपनी शक्ति से अधिक किया गया तप शरीर के लिए कष्टकर है। जीवन में आने वाली बाधाओं का स्वागत कर लेना तप की व्यावहारिक भूमिका है।
शरीर जब नाव यात्री नहीं हो सकती, तो शरीर आत्मा कैसे हो सकता है।
शान्ति स्वयं को प्रात्म-शान्ति एवं विश्व-शान्ति के लिए समर्पित करना जीवन का नैतिक कर्तव्य है।
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५८ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
शाश्वतता
संसार की शाश्वतता को चुनौती नहीं दी जा सकती । सृजन तो मात्र बहाना है । संसार का अस्तित्व हर प्रलय के बाद निश्चित है |
शास्त्र
शास्त्र मार्गदर्शक हैं, पर शास्त्रीयता का दुराग्रह बुद्धि का ओछापन है । .
शिक्षा
शिक्षा तब तक अधूरी कहलाएगी, जब तक आँखों से ननिहारा जायगा ।
शिक्षा - उद्देश्य
'एम.ए.' की उपाधि प्राप्त करना आजीविका के लिए सहायक है, लेकिन 'एम. ए. एन.' (मैन ) की रचना मानवीय शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य है ।
शिक्षा और आजीविका
उन लोगों की आजीविका सदैव प्रारक्षित है, जिन्होंने ज्ञान एवं शिक्षा के क्षेत्र को ईमानदारी से आत्मसात् किया है। जिन लोगों ने ज्ञान की बजाय सिर्फ उत्तीर्णता
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ५६ का प्रमाण-पत्र प्राप्त करने के लिए विद्यालयों के दरवाजे खटखटाये हैं, वे सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ने के बावजूद कभी भी नीचे फिसल सकते हैं।
शिवालय शिवालय में जाना तभी सार्थक कहलाता है जब मन शिव-सुन्दर बन जाता है।
शून्य-चित्त मनुष्य का शून्य-चित्त हो जाना व्यक्तिगत चेतन में परमात्म चेतन को अवतरित करने की सही पृष्ठभूमिका है।
श्रमण शत्रु-मित्र, कंकर-कंचन, आह्लाद-विषाद जैसे उतारचढ़ाव भरे हर परिवेश में स्वयं को समतौल रखने वाला ही श्रमण है।
श्रद्धा श्रद्धा वह भावना है, जो साकार में निराकार रूप में प्रगट होती है।
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६० ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
श्रद्धा / प्रज्ञा
सजल श्रद्धा और प्रखर- प्रज्ञा अभिनन्दनीय है ।
श्राद्ध
पिंडदान से मत्स्यों का पेट भर जाएगा; सही श्राद्ध तो आत्म-श्रद्धा ही है ।
संकल्प / समर्पण
बहाव के साथ बहना समर्पण है । संकल्प गंगासागर से गंगोत्री की ओर जाना है ।
संकीर्ण
नदी-नालों से तृप्त होने वाली मछली मानसरोवर क्यों चाहेगी !
संगत
किसी व्यक्ति का परिचय पाने के लिए इतना जानना ही पर्याप्त होगा कि वह कैसे लोगों के बीच रहता है और जीता है ।
उस संगत का अभिवादन है, जो सत् के सदाबहार फूल खिलाती है ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ६१
संग्रह
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहना मनुष्य का कर्तव्य है, लेकिन संग्रह की भावना से किया गया संचय मानवीय अपराध है।
संन्यास संन्यास मात्र जीवन की व्यर्थता का बोध नहीं है, अपितु उसकी सार्थकताओं को प्रात्मसात् करने का अभियान है।
वहाँ संन्यास है, जहाँ पाँव आगे पीछे होते रहते हैं, पर मन अडोल रहता है ।
संन्यास जीवन से नहीं; संसार से विरक्ति है।
संयम रोजमर्रा की जिन्दगी को सुसज्जित बनाने की बजाय सुसंयमित बनाना अधिक श्रेयस्कर है।
संयोग संयोग कभी स्वभाव नहीं हो सकता। मिट्टी सोने के साथ रहने से सोना नहीं बना करती।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
संवेग
मन के बहाव में अतीत के संवेग सहारा देते हैं । मन को दी जा रही ऊर्जा को अगर रोक दिया जाये, तो यह स्वतः रुक जाएगा ।
६२ ]
संवेदनशील
पावों तले आने वाले काँटे से ही नहीं, फूल से भी बचो । काँटे का पता तो शराबी को भी हो जाएगा, पर फूल की गड़न संवेदनशील ही समझ सकता है ।
1
संसार
संसार ऐसी विचित्र पहेली है, जिसका हल ढूढ़ने जाओगे तो पहेली का हल पहेली से कम नहीं होगा ।
अतीत के खंडहर और भविष्य की कल्पनाएँ — यही संसार है ।
उस संसार को सराय न कहा जाये तो और क्या कहा जाये, जहाँ सिर्फ चलाचली की ही रस्म अदा होती है ।
संस्कारित
जीवन को सभ्य और संस्कारित बनाने के लिए स्वयं को उन नालों से दूर रखना होगा, जो असभ्य प्रवृत्तियों से
भरे हुए हैं ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
सचेतनता सचेतनता पूर्वक किया जाने वाला क्रोध, क्रोध नहीं वरन् न्याय एवं सुधार का एक प्रकार है।
सत्कर्म-प्रवृत्ति सुख में ही सत्कर्म कर लो, दुःख में दुःख ही याद आएगा। सरदर्द होने पर ध्यान नहीं, सर का दर्द ही याद प्राता है।
सत्पथ 'महाजनोयेन गतः सःपन्था' की अभ्यर्थना करने वाले एक ही मार्ग की सत्यता का हठयोग क्यों करते हैं, जो और मार्ग हैं, महापुरुष उन पर भी चलते हैं। सच्चा पथ तो वही है, जो और पन्थों की अच्छाइयों की ओर ले जाता है।
सत्संग सत्संग जीवन में आध्यात्मिक परिवर्तन लाने के लिए क्रान्तिकारी पहल है।
ज्योतिर्मय पुरुषों का संसर्ग करते हुए समत्ववृत्ति से जीने वाला मनुष्य ही संसार के वलय से मुक्त हो सकता है।
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६४ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
सद्गुण-धृति मैत्री, सत्य, मधुरता और संयम की निष्ठा को दृढ़तर और उज्ज्वलतर बनाना जीवन को नरकावास से कोसों दूर रखना है।
सद्गुरु वह महापुरुष सद्गुरु है, जिसके सामने सच होना ही पड़ता है।
सद्गुरु मानसरोवर पर ही रहते हों, ऐसी बात नहीं है । वे जहाँ रहते है, वहीं मानसरोवर हो जाता है ।
सद्गृहस्थ साधु वन्दनीय है, पर कुछ गृहस्थ भी ऐसे होते हैं, जिनकी श्रेष्ठता साधुओं से बौनी नहीं होती।
सद्भाव भगवान उसी को अपना प्रतिनिधि स्वीकार करेंगे, जिसके अन्तर्मन में शुद्ध और सही भावों की गंगा बहती है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ६५
सद्भाव-प्रतिष्ठा जीवन में सुख और शान्ति लाने के लिए अवैर, प्रेम, मैत्री और भाईचारे की भावना को प्रतिष्ठित करना आवश्यक है।
सन्तोष ईर्ष्या दूसरे को सुखो देखकर प्रमुदित होना सन्तोष है और जलना ईर्ष्या ।
सभ्यता जीवन को सभ्य और सुसंस्कृत बनाने के लिए स्वयं को दुष्प्रवृत्तियों से दूर रखना चाहिये।
समर्पण सिर का झुकाना नमन है और दिल का झुकाना समर्पण।
बिंदु का सिंधु में खोना ही भक्त का भगवान होना है।
समानता किसे मित्र कहा जाये और किसे शत्रु। कल का मित्र आज शत्रु बन जाता है और आज का शत्रु कल मित्र ।
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६६ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
सम्पर्क पानी की एक बूंद सर्प के मुंह में विष और सीप के मुंह में मोती बनती है। इसलिए मानव को ऐसे लोगों से ही सम्पर्क रखना चाहिये जो मोती में ढालने की क्षमता रखते हों।
सम्बन्ध सम्बन्धों से संसार बनता है। मुक्ति सम्बन्धों में अनासक्ति की प्रेरणा है ।
सम्भावना जितनी अंधेरी रात होगी, उतनी ही प्यारी सुबह होगी।
सम्मान दूसरों के प्रानन्द को सम्मान से देखो, अन्यथा ईर्ष्या की अग्नि तुम्हें जला देगी।
सम्यग्दृष्टि शास्त्रों के जानकार कदम दर कदम हैं। किन्तु सम्यग्दृष्टि का उद्घाटन विरलों को ही होता है।
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[ ६७
सर्जन-संहार
एक वृक्ष से माचिस की लाखों दियासलाइयाँ बन सकती है, पर लाखों वृक्षों को जलाने के लिए एक दियासलाई ही काफी है ।
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
जो स्व का ज्ञाता है, वही सर्वज्ञ है ।
सर्व-दर्शन
स्वयं में सबको देखना और सबमें स्वयं को निहारना मानवता की आत्म-कथा है ।
सर्वज्ञ
सर्वात्मदर्शन
परमात्मा की सम्भावना हर मनुष्य में है । स्वयं की तरह दूसरों में भी परमात्मा की सम्भावनाओं को स्वीकार करने वाला जीवन के हर कदम पर परमात्मा की सेवा करता है ।
प्राणी मात्र में श्रात्मा को स्वीकार करने वाला ही हिंसा की हृदय से उपासना कर सकता है ।
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६८ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
सहृदयता मित्रों से तो हृदय का सम्बन्ध होता ही है, जो दुश्मनों के दिलों को भी जीत लेता है, वही विश्व बंधुत्व का सच्चा उत्तराधिकारी है।
सहिष्णुता सुख का स्वागत करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति तैयार रहता है, लेकिन जीवन में आने वाली बाधाओं को हँसतेहँसते सहन करना साधना है।
___समत्व की ऊँचाइयों को वही छू सकता है, जो दो कटु शब्द सुनने की क्षमता रखता है।
सही-गलत सही हाथों में मशाल जाने से दुनिया में रोशनी का संचार होता है। वहीं गलत हाथ वाले उस मशाल के जरिये रोशनी को बदनाम करते हैं ।
साक्षी-भाव साक्षी-भाव के अतिरिक्त जो भी विकल्प करोगे, वह मन का तादात्म्य ही होगा।
धन के समर्थन का कम्पन राग है और विरोधी कम्पन द्वष । वीतरागता साक्षी-भाव में है ।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
आत्म-स्वीकृति, तल्लीनता - ये ही साधना पथ के मील के पत्थर हैं ।
साधना-पथ
आत्म-अनुभूति और आत्म
[ ६९
साधु
साधु वह है, जिसके जीवन में सद्गुणों का बाग सरसब्ज है ।
वह पुरुष साधु है, जो दूसरों पर आई हुई आपदाओं से पिघल जाता है ।
साधुता
साधुता जीवन की आभा है। किसी वेश - विशेष को धारण कर स्वयं को साधु कहना एक अलग बात है, किन्तु साधुता की रोशनी से जीवन को अभिमण्डित करना साधुता की आचरण में अभिव्यक्ति है।
सामाजिक-धर्म
नदी स्नान से भेदभाव के समस्त पाप धोये जायें, मंत्रों से भ्रातृभाव का संकल्प जागृत करें और पर्वों से सामूहिक मंगलमयता का पथ प्रशस्त करें ।
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७० ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
सामाजिक-विकास सामाजिक-विकास के लिए आवश्यक है, हम एक हों और नेक हों। मैं उस समाज से प्यार करता हूँ, जिसमें एकता का प्रकाश हो और नैतिकता का विकास हो ।
साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता मनुष्यता को समाप्त कर उच्चतर मूल्यों को छीनती है।
सार्थक सार्थक की प्रतीति होने पर निःसार का ज्ञान सहज हो जाता है।
सार्थकता जीवन उसीका सार्थक है, जिसकी एक आवाज के पीछे हजार आवाज हो, एक कदम के पीछे हजार कदम हों।
सिद्धान्त-उपयोग सिद्धान्तों का उपयोग केवल तर्क-वितर्क के लिए नहीं, आचरण के लिए होना चाहिये।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ७१
सीख ___ वह सीख किस काम की जो व्यक्ति को क्रोधित कर दे।
सुख-वितरण सुख को फैलाने के लिए उसे जी-भरकर बांटों, दुःख स्वतः समाप्त हो जाएगा।
सेवा सेवा के लिए समर्पित हाथ उतने ही पवित्र हैं, जितने परमात्मा की प्रार्थना के लिए न्यौछावर होंठ ।
सोच
मन नहीं सोचता, अपितु सोचना ही मन है।
स्मति स्मृतियां विरह में साकार होती हैं, मिलन में नहीं।
स्मृति उपलब्धि में नहीं दूरी में है। पानी के लिए मछली पानी का वियोग होने पर ही तड़फ सकती है।
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७२ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
स्मृति-अवशेष जब तक स्मृति शेष है, पूर्ण वियोग असम्भव है।
स्वप्न यदि सपने के लड्डुओं से पेट भर जाता, तो श्रम की जरूरत ही न पड़ती।
स्वभाव चाहे अपराध हो या देवत्व स्वयं के स्वभाव में ही उसका परिदर्शन किया जाना चाहिये।
स्वर्ग-नरक स्वर्ग और नरक जीवन की ही अनुकूल एवं प्रतिकूल परिस्थिति का नाम है। मैत्री का विस्तार स्वर्ग है और वैर की प्रगाढ़ता नरक है।
स्वाद सारी मारा-मारी जीभ की है। गले से नीचे उतरने के बाद तो सब एक हो जाता है।
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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
[ ७३
स्वास्थ्य शरीर के लिए स्वास्थ्य का अर्थ है, शरीर के धर्म में शरीर स्थिर हो जाये। स्वास्थ्य का भीतरी अर्थ तो स्व-स्थ/अात्मस्थ होना है।
प्रेम की झील में हँस ही गति कर सकता है।
हक
प्रेम और खैर जिन्दों का हक है, मुर्दो का हक सिर्फ कफन है।
हार-जीत __ जहाँ विजय का भाव ही समाप्त हो जाता है, वहाँ हार कहाँ।
हिंसा किसी भी प्राणी की हत्या परमात्मा की आभा का इंकार है।
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७४ ]
रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
हिंसा-अहिंसा मांस खाने के कारण किसी को हिंसक कहना तथ्य की स्थूलता है। वास्तव में अन्तर्-वत्तियों में हिंसा होने के कारण ही व्यक्ति तामसिक पाहार करता है।
हीन स्वयं को हीन मानने से बड़ा कोई पाप नहीं है ।
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श्री जितयशाश्री फाउंडेशन का उपलब्ध साहित्य (मात्र लागत मूल्य पर)
फाउंडेशन का साहित्य सदाचार एवं सद्विचार का प्रवर्तन करता है । इस परिपत्र में जोड़ा गया साहित्य अलौकिक है, जीवन्त है। इस जीवन्त साहित्य को आप स्वयं संग्रहीत कर सकते हैं, मित्रों को उपहार के रूप में दे सकते हैं। इन अनमोल पुस्तकों के प्रचार-प्रसार के लिए आप सस्नेह आमंत्रित हैं।
ध्यान / अध्यात्म / चिन्तन
अप्प दीवो भव: महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर
श्री चन्द्रप्रभु के अनमोल वचनों का संकलन; जीवन, जगत् और अध्यात्म के विभिन्न आयामों को उजागर करता चिन्तन-कोष; आत्म-क्रान्ति का अमृत-सूत्र ।
पृष्ठ ११२, मूल्य १५/
चलें, मन के पार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर विश्व-स्तर पर प्रशंसित ग्रन्थ, जिसमें दरशाये गये हैं मनुष्य के अन्तर-जगत् के परिदृश्य; सक्रिय एवं तनाव-रहित जीवन प्रशस्त करने वाला एक मनोवैज्ञानिक युगीन ग्रन्थ । पृष्ठ ३००, मूल्य ३०/
व्यक्तित्व विकास : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर हमारा व्यक्तित्व ही हमारी पहचान है, तथ्य को उजागर करने वाली पुस्तक, जो बचपन से पचपन की हर उम्र वालों के लिए उपयोगी। एक बाल-मनोवैज्ञानिक पृष्ठ ११२ मूल्य १०/
प्रकाशन ।
संसार और समाधि : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
संसार पर इतना खूबसूरत प्रस्तुतिकरण पहली बार । संसार की क्षणभंगुरता में शाश्वतता की पहल। यह किताब बताती है कि संसार में रहना बुरा नहीं है। अपने दिल में संसार को बसा लेना वैसा ही अहितकर है, जैसे कमल पर कीचड़ का चढ़ना । पृष्ठ १६८, मूल्य १५/
संभावनाओं से साक्षात्कार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर अस्तित्व की अनंत संभावनाओं से सीधा संवाद ।
पृष्ठ ९२, मूल्य १०/
ज्योति जले बिन बाती : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ध्यान-साधकों के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण पुस्तक, जिसमें है ध्यान-योग की हर बारीकी का मनोवैज्ञानिक दिग्दर्शन ।
पृष्ठ १०८, मूल्य १०/
आंगन में आकाश : महोपाध्याय ललितप्रभसागर तीस प्रवचनों का अनूठा आध्यात्मिक संकलन, जो आम आदमी को भी प्रबुद्ध करता है और जोड़ता है उसे अस्तित्व की सत्यता से । पृष्ठ २००, मूल्य २०/
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जीवन-यात्रा : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर सुप्रसिद्ध प्रवचनकार श्री चन्द्रप्रभ के मानक प्रवचनों का अनोखा संकलन । जीवन के हर क्षितिज में कदम-कदम पर राह दिखाने वाला यात्रा-स्तम्भ । मौलिक जगत में जीने वालों के लिए विशेष उपयोगी।
पृष्ठ ३८६,मूल्य ५०/नवजीवन : महोपाध्याय ललितप्रभसागर व्यक्तित्व को ज्योतिर्मय बनाने वाली प्रवचनावली। प्रवचनों में है विषयगत गाम्भीर्य और जनमानस की उपयुक्त नापजोख। पृष्ठ७६, मूल्य ५/अमीरसधारा : महोपाध्यायु चन्द्रप्रभसागर. जिनत्व के सम्पूर्ण विराट वैभव को भाषा की ताजगी एवं विश्लेषण की गहराई के साथ प्रस्तुत करने वाले प्रवचनों का संकलन। पृष्ठ ८०, मूल्य ५/प्रेम के वश में है भगवान : महोपाध्याय ललितप्रभसागर एक प्यारी पुस्तक,जिसे पढ़े बिना मनुष्य का प्रेम अधूरा है । पृष्ठ ४८,मूल्य ३/जित देखं तित तूं :महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ईश्वर-प्रणिधान पर अनुपमेय पुस्तिका। अस्तित्व के प्रत्येक अणु में परमात्म-शक्ति को उपजाने का श्लाघनीय प्रयल। पृष्ठ ३२, मूल्य २/चलें, बन्धन के पार : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर बन्धन-मुक्ति के लिए क्रान्तिकारी सन्देश । प्रवचनों में है बन्धन की पहचान और मुक्ति का निदान । आम नागरिक के लिए विशेष उपयोगी प्रकाशन ।
पृष्ठ ३२,मूल्य २/वही कहता हूँ :महोपाध्याय ललितप्रभसागर अध्यात्म के उपदेष्टा ललितप्रभ जी के दैनिक समाचार-पत्रों में प्रकाशित स्तरीय प्रवचनांशों का संकलन,लोकोपयोगी प्रकाशन । पृष्ठ ३२, मूल्य २/समाधि की छांह :महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ध्यान की ऊंचाइयों को आत्मसात् करने के लिए एक तनाव-मुक्त स्वस्थ मार्गदर्शन । जीवन-कल्प के लिए एक बेहतरीन पुस्तक। पृष्ठ ८४, मूल्य ५/
आंख दो, रोशनी एक : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर बिना आसन लगाए सिद्धि दिलाने वाली एक उपयोगी पुस्तक।
पृष्ठ २४, मूल्य २/मैं तो तेरे पास में :महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर गंभीर एवं दार्शनिक विचारों का बोलता दस्तावेज । ध्यान-साधना के जगत् में मार्गदर्शक एक मील का पत्थर ।
पृष्ठ ६४,मूल्य ५/विराट सच की खोज में : महोपाध्याय ललितप्रभसागर सत्य की अनन्त संभावनाओं को दर्शाने वाला एक ज्योतिर्मय चिंतन ।
पृष्ठ ६४,मूल्य ६/
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३
अमृत- संदेश : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर सद्गुरु श्री चन्द्रप्रभ के अमृत-संदेशों का सार-संकलन ।
पृष्ठ ५६, मूल्य ३/
प्याले में तूफान : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर इन्सानियत एवं समाज में आई कमियों की ओर इशारा, आम आदमी से लेकर सम्पूर्ण विश्व के दिल में भड़कते तूफान का बेबाक आकलन; सभी लेख स्तरीय और अनिवार्यतः पठनीय । पृष्ठ ९०, मूल्य १०/
पयुर्षण-प्रवचन: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
पर्युषण महापर्व के प्रवचनों को घर-घर पहुंचाने के लिए एक प्यारा प्रकाशन ; भाषा सरल, प्रस्तुति मनोवैज्ञानिक । पढ़ें कल्पसूत्र को अपनी भाषा में ।
पृष्ठ १२०, मूल्य १०/
ध्यान: प्रयोग और परिणाम : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर ध्यान के विभिन्न पहलुओं पर जीवन्त विवेचन। भगवान महावीर की निजी साधना-पद्धति का स्पष्टीकरण । पृष्ठ ११२, मूल्य १०/
लाईट-टू-लाइट : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
ध्यान में अभिरुचिशील लोगों के लिए 'माइल-स्टॉन' । विश्व के दूर-दराज तक फैली ध्यान- पुस्तिका । पृष्ठ ९२, मूल्य १०/
द प्रिजविंग ऑफ लाइफ : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर मानव-चेतना के विकास के हर संभव पहलू पर प्रकाश । पृष्ठ १००, मूल्य १०/
मेडिटेशन एण्ड एनलाइटमेंट : चन्द्रप्रभ
मन एवं मस्तिष्क के संतुलन से लेकर ध्यान और समाधि के विभिन्न पहलुओं पर मनन और विश्लेषण; विदेशों में भी अत्यधिक प्रसारित/स्वीकृत ।
पृष्ठ १०८, मूल्य १५/
आगम / शोध / कोश
आयार- सुत्तं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर एक आदर्श धर्म-ग्रन्थ का मूल एवं हिन्दी अनुवाद के साथ अभिनव प्रकाशन जो सद्विचार के सूत्रों में सदाचार का प्रवर्तन करता है। शुद्ध मूलानुगामी अनुवाद छात्रों के लिए विशेष उपयोगी । प्रन्थ का फैलाव सीमित, किन्तु प्रस्तुतिकरण सर्वोच्च । विज्ञान एवं चिन्तन के क्षेत्र में एक खोज । पृष्ठ २६०, मूल्य ३०/
सूयगड- सुत्तं : महोपाध्याय ललितप्रभसागर प्रसिद्ध धार्मिक- दार्शनिक आगम-ग्रन्थ सूत्रकृतांग का मूल एवं सशक्त अनुवाद । साथ ही प्रत्येक अध्ययन का चिन्तनपरक प्रास्ताविक । पृष्ठ १७६, मूल्य २०/
समवाय-सुतं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागुर विश्वविद्यालय- पाठ्यक्रम के स्तर पर तैयार किया गया जैन आगम समवायांग का सीधा-सपाट मूलानुगामी अनुवाद ।
पृष्ठ ३१८, मूल्य ३०/
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उत्तराध्ययन के सूक्त वचन : महोपाध्याय ललितप्रभसागर आगम-ग्रन्थ उत्तराध्ययन की सार्वभौम एवं सार्वकालिक सूक्तियों का चयन। अनुवाद की भाषा आकर्षक एवं प्रांजल ।
पृष्ठ ५२,मूल्य ४/चन्द्रप्रमः जीवन और साहित्य : डॉ.नागेन्द्र महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागरजी की साहित्यिक सेवाओं का विस्तृत लेखा-जोखा। एक समीक्षात्मक अध्ययन।
पृष्ठ १६०,मूल्य १५/उपाध्याय देवचन्द्र : जीवन, साहित्य और विचार : महोपाध्याय ललितप्रभ सागर महान् तत्त्वविद् उपाध्याय श्री मद् देवचन्द्र के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रशस्त प्रकाश डालने वाला एक शोधपूर्ण प्रबन्ध।।
पृष्ठ ३२०,मूल्य ५०/विश्व-संस्कृत-सूक्ति-कोशः महोपाध्याय ललितप्रभसागर संस्कृत की विराट सम्पदा के सूक्त-रत्नों की विश्व-चयनिका,जो सूक्ति-कोश भी है और सन्दर्भ-कोश भी। हिंन्दी अनुवाद की शालीनता कोश की अतिरिक्त विशेषता । तीन खंडों में ग्रन्थ का आकलन। पृष्ठ १०००,मूल्य ३००/छैन पारिभाषिक शब्द-कोश : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर जैन-परम्परा में प्रचलित दुरूह एवं पारिभाषिक शब्दों पर टिप्पणी एवं परिचर्चा करने वाला एक उच्चस्तरीय कोश।
पृष्ठ १५२,मूल्य १०/हिन्दी सूक्ति-सन्दर्भ कोश : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर हिन्दी के सुविस्तृत साहित्य से सूक्तियों का ससन्दर्भ संकलन; भारतीय सन्तों एवं मनीषियों के चिन्तन एवं वक्तव्यों का सारगर्भित सम्पादन; आम पाठकों के अलावा लेखकों के लिए खास कारगर; एक आवश्यकता की वैज्ञानिक आपूर्ति। दो भागों में।
पृष्ठ ७००,मूल्य १००/पंच संदेश : महोपाध्याय ललितप्रभसागर . पुस्तक में है अहिसा,सत्य,अस्तेय,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह पर कालजयी सूक्तियों का अनूठा सम्पादन।
पृष्ठ ३२,मूल्य २/
सन्त-वाणी महाजीवन की खोज:महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर आचार्य कुन्दकुन्द, योगीराज आनंदघन एवं श्रीमद् राजचन्द्र जैसे अमृत-पुरुषों के चुने हुए अध्यात्म-पदों पर बेबाक खुलासा । घर-घर पठनीय प्रवचन-संग्रह । हर मुमुक्षु एवं साधक के लिए उपयोगी।
पृष्ठ १४८,मूल्य १०/बूझो नाम हमारा : महोपाध्याय ललितप्रभसागर. योगीराज आनंदघन के पदों पर किया गया मनोवैज्ञानिक विवेचन,जो पाठक को मौलिक व्यक्तित्व से परिचय करवाता है।
पृष्ठ ६८,मूल्य ५/
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मैं कौन हं : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर अध्यात्म-पुरुष राजचन्द्र के अनुभव-गीतों की गहराइयों को उजागर करने वाले प्रवचनों का संकलन।
पृष्ठ ६८,मूल्य ३/देह में देहातीत : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर प्रसिद्ध अध्यात्मवेत्ता आचार्य कुन्दकुन्द की टेढ़ी गाथाओं पर सीधा संवाद । विशिष्ट प्रवचन।
पृष्ठ ७२,मूल्य ५/भगक्ता फैली सब ओर : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर आचार्य कुन्दकुन्द के अष्टपाहुड़ ग्रन्थ से ली गई आठ गाथाओं पर बड़ी मार्मिक उद्भावना । इसे तन्मयतापूर्वक पढ़ने से जीवन-क्रान्ति और चैतन्य-आरोहण बहुत कुछ सम्भव।
पृष्ठ १००,मूल्य १०/सहज मिले अविनाशी : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर पतंजलि के प्रमुख योग-सूत्रों के आधार पर परमात्मा से सहज साक्षात्कार ।
पृष्ठ ९२, मूल्य १०/अंतर के पट खोल : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर पतंजलि के दस सूत्रों पर पुनर्प्रकाश; योग की एक अनूठी पुस्तक ।
पृष्ठ ११२, मूल्य १०/हंसा तो मोती चुगै : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर भगवान महावीर के कुछ अध्यात्म-सूत्रों पर सामयिक प्रवचन ।
पृष्ठ ८८,मूल्य १०/
कथा-कहानी सिलसिला : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर. कहानी-जगत की अनेक आजाद वारदातें, पशोपेश में पड़े इंसान के विकल्प को तलाशती दास्तान । बालमन, युवापीढ़ी,प्रौढ़ बुजुगों के अन्तर्मन को समान रूप से छूने वाली कहानियों का संकलन ।
पृष्ठ ११०,मूल्य १०/संसार में समाधि:महोपाध्याय ललितप्रभसागर समाधि के फूल संसार में कैसे खिल सकते हैं,सच्चे घटनाक्रमों के द्वारा उसी का सहज विन्यास । हर कौम के लिए शान्ति और समाधि का संदेश।
पृष्ठ १२०,मूल्य १०/लोकप्रिय कहानियाँ: महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर जैन संस्कृति को उजागर करने वाली सुप्रसिद्ध कथा-कहानियों का सार-संक्षेप। सहज भाषा में जैनत्व की धड़कन ।
पृष्ठ ४८,मूल्य ३/
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पंचामृत : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
चेतना- जगत में इंकलाब की क्रान्ति का नारा देने वाली गुजराती भाषा में निबद्ध पुस्तक | आगम-पत्रों की नये ढंग से कथा- शैली में पुन: प्रतिष्ठा ।
पृष्ठ ९६, मूल्य ७/
संत हरिकेशबल: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
अस्पृश्यता निवारण के लिए बोलती एक रंगीन कहानी । बच्चों के लिए सौ फीसदी उपयोगी । पृष्ठ २४, मूल्य ४/
दादा दत्त गुरु : महोपाध्याय ललितप्रभसागर पहले दादा गुरुदेव आचार्य जिनदत्तसूरि की सर्वप्रथम प्रकाशित चित्र- कथा; ज्ञानवर्धक, रोचक भी ।
पृष्ठ २४, मूल्य ४/
सत्य, सौन्दर्य और हम : महोपाध्याय ललितप्रभसागर सुन्दर, सरस प्रसंग, जिनमें सच्चाई भी है और युग की पहचान भी ।
घट-घट दीप जले : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित चन्द्रप्रभ जी की उन कहानियों का संकलन, जिनमें जीवन-दीप की आत्मा हर शब्द में फैल रही है ।
पृष्ठ ३२, मूल्य २/
पृष्ठ ३२, मूल्य २/
कुछ कलियाँ, कुछ फूल: महोपाध्याय ललितप्रभसागर संसार के विभिन्न कोनों में हुए सद्गुरुओं की उन घटनाओं का लेखन, जिनमें छिपे हैं जीवन- क्रान्ति और विश्व शान्ति के सन्देश । पृष्ठ ३२, मूल्य २/
काव्य-कविता
बिम्ब-प्रतिबिम्ब: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
जीवन की उधेड़बुन को प्रस्तुत करने वाली एक सशक्त प्रौढ़ काव्य-कृति । सत्य के संगान का अभिनव प्रयत्न । पृष्ठ ८४, मूल्य ७/
छायातप: महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
अदृश्य प्रियतम की कल्पना की रंगीन बारीकियों का मनोज्ञ चित्रण | रहस्यमयी छायावादी कविताओं का एक और अभिनव प्रस्तुतिकरण । पृष्ठ१०८, मूल्य १०/जिन - शासन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
एक अनूठी काव्यकृति, जिसमें है सम्पूर्ण जैन शासन का मार्ग-दर्शन । काव्य- शैली में जैनत्व को समप्रता से प्रस्तुत करने वाला एक मात्र सम्पूर्ण प्रयास ।
पृष्ठ ८०, मूल्य ३/
अधर में लटका अध्यात्म : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
दिल की गहराइयों को छू जाने वाली एक विशिष्ट काव्यकृति । पढ़िए, मस्तिष्क के परिमार्जन एवं जीवन के सम्यक् संस्कार के लिए ।
पृष्ठ १५२, मूल्य ७/
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गीत- भजन - स्तोत्र
प्रार्थना : महोपाध्याय चन्द्रप्रभसागर
चौबीस तीर्थकरों की भक्ति-वन्दना ; नई लयों में रस-भावों की अभिव्यक्ति । प्रत्येक तीर्थंकर के नाम स्वतंत्र प्रार्थना और भजन ।
पृष्ठ ५२, मूल्य ५/-.
दादा गुरु- भजनावली : महोपाध्याय विनयसागर 'दादा गुरुदेव' के नाम से विश्व-विख्यात आचार्य जिनदत्तसूरि, जिनकुशलसूरि आदि चार दादा गुरुओं की स्तुति/ प्रार्थना से संबंधित मंत्र-तंत्र बिखरे स्तोत्रों/ भजनों का सर्वांगीण विराट- अपूर्व संकलन । • पृष्ठ ६००, मूल्य ५०/
महान् जैन स्तोत्र : महोपाध्याय ललितप्रभसागर अत्यन्त प्रभावशाली एवं चमत्कारी जैन स्तोत्रों का विशाल संग्रह ।
श्रद्धांजलि : महोपाध्याय ललितप्रभसागर
भजनों और गीतों का सम्पूर्ण संग्रह । प्रभात वन्दना एवं भजन-संध्या में नित्य उपयोगी । पृष्ठ ३२, मूल्य २/
पृष्ठ १२०, मूल्य १०/
भक्तामर : आचार्य मानतुंगसूरि
सुप्रसिद्ध भक्तामर स्तोत्र का शुद्ध- परिमार्जित प्रकाशन; मूलपाठ के साथ है हिन्दी अनुवाद गद्य-पद्य दोनों में ।
पृष्ठ ४८, मूल्य ३/
जैन भजन : महोपाध्याय चन्द्रप्रभ सागर लोकप्रिय तर्जों पर निर्मित भावपूर्ण गीत- भजन। छोटी, किन्तु प्यारी पुस्तक ।
पृष्ठ ४८, मूल्य २/
रजिस्ट्री चार्ज एक पुस्तक पर ८/-, संपूर्ण सेट डाक-व्यय से मुक्त | धनराशि श्री जितयशाश्री फाउंडेशन (SRI JIT-YASHA SHREE FOUNDATION) कलकत्ता के नाम पर बैंक ड्राफ्ट या मनिआर्डर द्वारा भेजें। आज ही लिखें और अपना ऑर्डर भेजें ।
सम्पर्क सूत्र : श्री जितयशाश्री फाउंडेशन
९ सी, एस्प्लनेड रो ईस्ट, (रूम नं. २८) कलकत्ता- ७०००६९ दूरभाष : २०८७२५/५००४१४
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श्री जितयशाश्री फाउंडेशन द्वारा साहित्य- विस्तार की अभिनव योजना * अपने घर में अपना पुस्तकालय *
श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, लाभ-निरपेक्ष एवं विश्व श्रेय के लिए समर्पित संस्थान है। साहित्य-विस्तार एवं कला प्रस्तुति के क्षेत्र में इसके अपने कीर्तिमान हैं। सदाचार एवं सद्-विचार की गंगा-यमुना को घर-घर ले जाने के लिए यह संस्थान निरन्तर प्रयत्नशील है। जैन-धर्म के उन सिद्धान्तों एवं आदर्शों को हर घर पहुँचाना हमारा उद्देश्य है, जिनकी जरूरत हर समय, हर व्यक्ति और हर समाज को रही है। फाउंडेशन के विविध विषयों से जुड़े हुए साहित्य को भारत के प्रमुख पत्रों एवं विद्वानों ने सराहा है औरउसकी सेवाओं को अनिवार्य भी माना है ।
फाउंडेशन द्वारा प्रसारित साहित्य युग-युग की सम्पदा है और आधुनिक चिन्तन- जगत् की बेहतरीन प्रस्तुति । आम आदमी से लेकर विद्यार्थियों और प्र प्रबुद्ध लोगों की ज्ञान- क्षेत्र की हर जिज्ञासा को समाधान देने में यह साहित्य लाजवाब है ।
अपना पुस्तकालय अपने घर में बनाने के लिए फाउंडेशन ने एक अभिनव योजना बनाई है। इसके अन्तर्गत आपको सिर्फ एक बार ही फाउंडेशन को एक हजार रुपये का अनुदान देना होगा, जिसके बदले में फाउंडेशन अपने यहाँ से प्रकाशित होने वाले प्रत्येक साहित्य को आपके पास आपके घर पहुँचाएगा और वह भी आजीवन । इस योजना के तहत एक और विशेष सुविधा आपको दी जा रही है कि इस योजना के सदस्य बनते ही आपको रजिस्टर्ड डाक से फाउंडेशन का अब तक प्रकाशित सम्पूर्ण साहित्य निःशुल्क प्राप्त होगा ।
लीजिए ! आप हमारी इस साहित्य-योजना के आजीवन सदस्य बनकर अपने घर में अपना पुस्तकालय बनाइये और व्यावहारिक जीवन की बातों से लेकर ध्यान, साधना, समाधि, चिन्तन, प्रवचन, कहानी, आगम, इतिहास एवं दर्शनक्षेत्र की अनमोल पुस्तकें अपने घर में बसाइये ।
श्री जितयशाश्री फाउंडेशन, ९-सी, एस्प्लनेड रो (ईस्ट), कलकत्ता- ७०००६९
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________________ रोम-रोम रस पीजे सम्भावनाओं का विज्ञान अतुलनीय पुरस्कारों से पूर्ण है। कभी जो कार्य असम्भव कहलाते थे, वे अब सब सम्भावित होने लगे हैं। विकास के रास्ते अवरुद्ध नहीं हुए हैं। जरा आँख खोलें, विकास के नये-नये आयाम हमारे सामने हैं। घेरे के व्यामोह से ऊपर उठे और कुछ हो-गुजरने का संकल्प आत्मसात् करें। चिन्तन के ये सत्र हमें दिशा दरशाएँगे। संकल्प और प्रयत्न-दोनों का साहचर्य हो, तो सफलता की रसधार रोम-राम से फट पड़ेगी। सफलता की हर सम्पदा हमसे ही जड़ी है। हमें आत्मसात् करनी चाहिये आत्म-सम्पदा को, व्यक्तित्व की अस्मिता को। -महोपाध्याय ललितप्रभसागर For Personal & Private Use Only