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________________ रोम रोम रस. पीजे. ललितप्रभ पाप-प्रक्षालन पापों के प्रक्षालन के लिए, मन्दिर और तीर्थों का सहारा लिया जाता है, किन्तु जो पवित्र स्थलों में भी पाप करता है, उसके लिए मुक्ति का सहारा और कहाँ होगा। पार्थक्य मानव जाति के बीच वर्ग, वर्ण व पंथ की दीवारें खड़ी करना, अपने ही हाथों से स्वयं के पाँवों को क्षत-विक्षत करना है। पीड़ा पीड़ा का मूल स्वरूप पहचानने के बाद सुख की कोई अभिलाषा नहीं रह पाती। पुनर्प्रकाश धर्म की उन बातों को पुनर्-उजागर करना चाहिये, जितसे समाज की वर्तमान समस्याओं का निपटारा हो सके। पुरुषार्थ । संभावनाओं से साक्षात्कार करने के लिए स्वयं को पुरुषार्थ करना आवश्यक है। गुरु प्यास की बोध करा सकता है, पर प्यासा नहीं बना सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003969
Book TitleRom Rom Ras Pije
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalitprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year1993
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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