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'रोम-रोम रस पीजे' महोपाध्याय श्री ललितप्रभ सागरजी के अनुभवों का जितना विस्तार है, चिन्तन और भावना की गहराई भी उतनी ही है । जितनी विविधता है, उतनी ऊँचाई भी है । वक्तव्य में सादगी पर पैठ पैनी । इन रस- पूर्ण जीवन - सूत्रों में हर आयाम उजागर हुआ है, फिर चाहे वह निजी हो या सार्वजनीन प्राध्यात्मिक हो या व्यावहारिक । जीवन के हर मोड़ पर सहकारी हैं सूक्त - वचन । सुख में हृदय की किल्लोल बनकर और दुःख में मित्रवत् सहभागी बनकर । पान करें रस का, ह्रर वचन से झरते अमृत का रोम-रोम से, तहेदिल से |
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