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रोम रोम रस पीजे : ललितप्रभ
आशा-अपेक्षा मन का भिक्षा-पात्र दुष्पूर है। मनुष्य को उतनी आशाएं ही संजोनी चाहिये, जो जीवन के लिए अनिवार्य हैं।
प्राशा-निराशा जहाँ आशा नहीं, वहाँ निराशा भी नहीं।
प्रासक्त अन्धा वह नहीं है, जो सूरदास है। अन्धा तो उसे कहा जाना चाहिये, जो आसक्त है।
इंसानियत जिसे इंसानियत से प्रेम नहीं है, वह ईश्वर से प्रेम कैसे कर पाएगा।
जिन्होंने इंसानियत की कीमत प्रांकी है, उनके चरण छूने के लिए देव भी लालायित रहते हैं।
इच्छा इच्छात्रों के वशीभूत होकर भौतिक पदार्थों के लिए जीवन को न्यौछावर करना चैतन्य ऊर्जा का अपव्यय है।
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