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निर्देशानुसार कुछ समय पश्चात् ब्राह्मणतपधारी दोनों देवता राजसभा में उपस्थित हुए, वहाँ और सब कुछ तो ठीक था मगर जैसे ही उन्होंने सनतकुमार को देखा.....)....थू...करने लगे।
'अरे, यह क्या कर रहे हो?' चक्रवर्ती सनतकुमार ने साश्चर्य पूछा।
'पलट गई तुझ काया, म कर ममता माया' यह कहकर ब्राह्मणों ने उसे चौंका दिया...।
'पलट गई काया ? क्या पलट गई ? कहाँ पलट गई ?' 'सोल रोग तेरी काय में उपन्या, गर्व म धर कूडी काया !!' 'क्या कहा ? मेरी देह में भयंकर सोलह महारोग ?'
'जी हाँ, सत्य है ! यदि हमारी बात पर विश्वास न हो तो ताम्बूल पिकदानी में यूँककर देखिये, उसमें भयंकर बदबू आयेगी....।'
चक्रवर्ती ने पिकदानी में यूँका....भयंकर बदबू आ रही थी...चक्रवर्ती के तंबोल-पान में तो खुशबू ही खुशबू होती है, मगर यह असह्य दुर्गंध देखकर सनत चक्रवर्ती खड़े हो गये.....'इन सभी शारीरिक रोगों की जड़ कर्मरोग है....उसको दूर किये बिना वैद्य-हकीमों को बुलाकर शरीर का इलाज करवाने का कोई अर्थ नहीं है....सिर्फ समय और शक्ति को बरबाद करना है (Waste of Time & Energy) और इस कर्मरोग को दूर करने के लिये चारित्र जैसा अमोघ उपाय दूसरा कोई नहीं है...।' वैराग्यवासित बनकर सनतकुमार ने जैसे चादर निकालकर फेंकते हैं, उतनी ही सहजता के साथ छ: खंड का सार्वभौमत्व, नवनिधि-चौदहरत्न आदि अथाह धन-संपत्ति-ऋद्धि-समृद्धि, एक लाख बावन हजार स्त्री परिवार
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /12
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