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भरी हुई मानव काया का ! वे मन्त्रमुग्ध हो गये और उनका सिर डोलाने लगे......।
'क्या देख रहे हो?' सनतकुमार ने पूछा। जवाब था 'आपका अद्भुत रूप।' 'अरे, अब ?' 'हाँ, क्यों ?'
'अरे, अब कोई रूप देखने का समय है ?....कहीं केसर.... कहीं कस्तूरी के....अनगिनत रंग-बिरंगे धब्बे पड़े हुए हैं। यदि रूप देखना ही हो तो' रूप के मद से मत्त हो उठा सनत चक्री । वह कह रहा था....'अभी नहीं, बाद में आना..'
'एक नूर आदमी, हजार नूर कपड़ा। लाख नूर वाणी, करोड़ नूर नखरा।' आदमी का अपना तो एक ही नूर होता है, मगर जब वह कपड़े पहिन लेता है, तब उसका नूर-तेज हजार गुना बढ़ जाता है। इन्टरव्यू में जाना हो तब अपने घर में सूट न हो तो भी किसी दोस्त से माँग कर ले आता हैं.....जानता हैं कि इससे नूर बढ़ जायेगा....पर्सनालिटी पड़ेगी..... मगर यदि वहाँ बोलना नहीं आता है, तो मुँह नीचा कर अपना-सा मुँह लिये घर लौटना पड़ता है....क्योंकि वाणी से आदमी का नूर लाख गुना बढ़ जाता है और वही वाणी जब एक्टिंग के साथ हो तो.....वाह ! जी वाह ! क्या कहने.... | आदमी का नूर करोड़ गुना बढ़ जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सनतकुमार ने कहा - अभी नहीं, बाद में....हाँ, बाद में जब मैं नहा-धोकर बढ़िया से बढ़िया राजशाही कपड़े पहन लूँ....आभूषणों से अपना शृंगार कर लूँ.....सिंहासन पर बैठ कर जब हुक्म चलाऊँ, तब मेरी देह की कान्ति और रूप को भरपेट निहारना....।'
रे कर्म तेरी गति न्यारी...!! /11
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