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रयणवाल कहाँ
(६) इस प्रकार इन पाँच परमेष्ठियों की भावपूजा कर मैं अल्पज्ञ
काव्य-कलना में सहज प्रवृत्त होता हूँ। (७) जो व्यक्ति पर-पुद्गलों में आसक्त रहते हैं, उनके सुख-दुःख की
परिभाषा क्या हो सकती है ? ओह ! संसार बड़ा विचित्र है । (८) पुद्गलमय संसार की सारी लीला क्षणभंगुर है। यहाँ क्या
हँसना ? क्या रोना ? क्या शोक ? और कौन-सा आनन्द है ? (6) एक ही जीव अपने एक ही जन्म में किस प्रकार कर्मों को विचित्रता
का अनुभव करता है, (किस प्रकार उत्थान और पतन के चक्र से
गुजरता है) इसका सम्यग् निदर्शन यह 'रत्नपाल कथा' है । (१०) यद्यपि यह मेरी काव्य रचना, काव्य की छटा से रहित है, फिर
भी यह कथा मधुर और स्वभावतः सरस है। क्या अनलंकृत बालक भी मनुष्यों के मन को आकर्षित नहीं करता ?
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