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सातवां उच्छ्वास
आभूषण धारण किए। इस प्रकार उसने सोलह शृंगार किए और वह साक्षात् मनुष्य रूप में देवी की तरह दीखने लगी । जैसे बादलों से चन्द्र की रेखा प्रगट होती है, वैसे ही वह स्नानागार से सहसा घर के आंगन में प्रकट हुई। उस समय रत्नपाल ऊपर के कमरे में था। वह रत्नवती कलहँसी की भांति चरण न्यास करती हुई, सोपान मार्ग से शीघ्र ही ऊपर चली गई । जब वह लक्ष्मी की तरह विकसित मुखारविन्द वाली रत्नपाल को दीखी, तब वह अत्यन्त विस्मित हुआ । उसने पूछा-'अरे बिम्बोष्ठी ! तू कौन है ? सुतनु ! तू कहां से प्रकट हो गई ? मृगाक्षी ! मेरे से तेरा क्या प्रयोजन है ?' ___ मुस्कराहट से अपनी उज्ज्वल दंत-पंक्ति को दिखाती हुई वह रत्नवती पतिदेव के चरणों में गिर पड़ी । और बोली -"आर्यपुत्र ! आपने अपनी परिणेता को भी नहीं पहचाना ? मैं ही आपके साथ राउल रूप में आई हुई रत्नवती हूँ। क्या मैं वही नहीं हूँ जिसको आपने वहां देखा था ?" ___तू राउल के रूप में छिपी हुई रत्नवती है ? अहो ! मैंने यह कभी नहीं सोचा, पहचाना और चिन्तन किया कि ऐसे हो सकता है ?" क्षणभर के लिए रत्नपाल भी विस्मय से भर गया । "ओह ! तुम्हारे पिता ने कैसी कला रची है ? बिना कुछ परिचित कराए मेरे साथ उसने तुमको कैसे भेज दिया ? इसीलिए वह महानुभाव धूर्तों का आधिपत्य कर रहा है।" रत्नवती ने पतिदेव के चरण छुए। वह चन्द्रमुखी हर्ष से रोमांचित हो उठी। रत्नपाल ने उसे गोद में उठा लिया और अधरामत का पान करते हुए अपने पास बिठा लिया। रत्नवती अपने पति के मिलन से अवर्णनीय सुख का अनुभव करती हुई उपालंभ की भाषा में बोली- पतिदेव ! आपने मुझे अबला और निराधार को अकेली ही पिता के घर क्यों छोड़ दिया ? क्या आप नई वधू. जिसका पति प्रवासी हो चुका है की स्थिति नहीं जानते ? आपने मेरे साथ वहां कभी भी संलाप नहीं किया, मानो कि कोई संबंध हआ ही न हो। आपने न मुझे प्रेममय वचनों से पुष्ट ही किया और न यथार्थ की जानकारी ही दी। अरे ! नीरस हृदय ! आपने मुझे यों ही छोड़ दिया ! क्या आर्यपुत्र का यह व्यवहार उचित था? क्या कोई भी बुद्धिमान ऐसे कृत्य का अनुमोदन करेगा ? मेरे पिता भी बहुत चिन्तित हुए किन्तु किसी महात्मा की कृपा से यह कार्य सम्पन्न हुआ । मैं यहां राउल के रूप में आई, माता-पिता की खोज में गई। प्रत्येक गांव और नगर में घूमते हुए मैंने क्या-क्या अनुभव नहीं किया ? सब कुछ मैंने अपना कर्त्तव्य समझकर किया है । आज मैं कृतकार्य होकर मूल रूप में आर्यपुत्र के सम्मुख उपस्थित हुई हूं।' इस प्रकार कहती हुई रत्नवती,
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