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रयणवाल कहाँ
सभी के मुंह पर राउल का जय-सौरभ महकने लगा। इस प्रकार बढ़ते हुए धन में पुनः अधिक वृद्धि हुई। अत्यन्त आनन्द से इनके दिन क्षण की तरह बीतने लगे।
एक दिन रत्नपाल ने राउल से सखेद कहा---'राउल ! मैं चिन्ता के सागर में गिर पड़ा है। मुझे अपनी पत्नी को लाने के लिए ससुरालय अवश्य ही जाना चाहिए, परन्तु चिर-विरह से पीड़ित मेरे माता-पिता मुझे क्षण भर के लिए भी आँखों से ओझल करना नहीं चाहते ! दूध से जले जैसे छाछ को भी फूंक-फूक कर पीते हैं, उसी प्रकार मेरे विरहाग्नि से दग्ध मेरे मातापिता मेरे दूर जाने की बात भी नहीं सह सकते । 'मुझे अब क्या करना चाहिए ?'-यह महान् दुविधा में पड़ा मेरा मन नहीं जान सकता ।
प्रसन्न वदन राउल ने गंभीर होकर कहा-'क्या आपको अपने अनुभवी श्वसुर की शिक्षा याद नहीं है ? उन्होंने कहा था-प्रवास लम्बा है । पुनः यहां लौट आना दुर्लभ है। अपनी पत्नी को साथ में ही ले जाओ। उसे अकेली यहां मत छोड़ो, किन्तु आपने उनके आदेय वचनों की गुरुता नहीं जानी और न चिन्तन ही किया । अब चिन्ता करने से क्या होगा ? पत्नी को लाना आवश्यक है । यदि आप कहें तो मैं उसको लाने के लिए अकेला जाऊँ। दूसरा क्या उपाय हो सकता है ?' .
राउल की बात सुनकर रत्नपाल लज्जित हुआ और बोला-'राउल ! यह कैसे कह रहे हो ? जहां मुझे जाना चाहिए, वहां तुमको भेजना लज्जास्पद है। मैंने अपने श्वसुर के सम्मुख यह प्रतिज्ञा की थी कि मैं शीघ्र ही अपनी सहचरी को लेने वापिस आऊँगा। अपने वचन का पालन करना सत्पुरुषों का कर्तव्य है । पुनः जिसका हाथ मैंने पकड़ा है, जो मेरी अर्धांगिनी बनी है और जिसका आधार एक मात्र मैं ही हूँ, उसके लिए मेरा वहां जाना समुचित है। माता-पिता से विनयपूर्वक आज्ञा-प्राप्त कर मैं शीघ्रातिशीघ्र जाने का इच्छुक हूँ। दूसरा कोई विकल्प नहीं है ।"
राउल के रूप में रत्नवती अपने पतिदेव की कर्तव्यपालन की तत्परता को देखकर बहुत आनन्दित हुई । 'मैं भी अब अपने मूल रूप में आजाऊँ-ऐसा उसने निश्चित किया और तत्काल वह स्नान घर में चली गई। उसने राउल का वेष उतार डाला। शरीर का उबटन कर साफ पानी से स्नान किया। और उस योगी द्वारा प्रदत्त जड़ी का प्रयोग किया । नरत्व विलीन होगया और नारी रूप प्रगट हो गया। उसने पेटी खोली, रेशमी कपड़े पहने और बहुमूल्य
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