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रयणवाल कहां
चन्द्रमंडल को निहारती हुई चकोरी की भांति, प्रिय पति के मुख को देखती हुई आनन्द में लीन हो गई।
रत्नपाल ने कहा---'हां ! तुम सत्य कह रही हो, मैंने तुमको वहां रख कर भूल की है। अपरिपक्व बुद्धि के कारण क्या ऐसे परिणाम नहीं आते ? किन्तु तुम्हारे अनुभवी पिता के अनुग्रह से सब कुछ सुन्दर, समुचित और अच्छा हो गया। वहां जाना अभी संभव नहीं होता। मेरे माता-पिता की खोज में तुमने जो साहस दिखाया है, वह अबला के बल से अतिरिक्त है। उसके लिए जितने धन्यवाद दिए जाए, वे सभी थोड़े हैं। माता-पिता भी राउल के सेवा-भाव की प्रशंसा करते हैं'--'इस प्रकार बात-चीत करते हुए दोनों माता-पिता के दर्शन करने के लिए चल पड़े। ये दोनों प्रसन्न वदन से, जहां माता-पिता बैठे थे, वहां आए । रति के साथ कामदेव की तरह रत्नवती के साथ रत्नपाल को देखकर माता-पिता को आश्चर्य हुआ। उन्होंने पूछा"यह रूपवती स्त्री कौन है, जो तुम्हारे साथ सहसा अवतीर्ण हुई ? क्या कोई आराधिता देवी मनुष्य शरीर धारण कर प्रकट हुई है ? इसके साथ हमारा क्या संबंध है ?' इस प्रकार वे तर्क-वितर्क कर रहे थे । इतने में ही रत्नवती ने अपने सासु-श्वसुर के चरण छुए। हाथ जोड़कर वह बोली- 'मैं आपकी पुत्र-वधू आपके प्रिय पुत्र की पत्नी रत्नवती हूँ । विद्याबल से राउल के रूप में, मैं पति के साथ आई। मैं ही आपकी पुत्रवधू हूँ, दूसरी नहीं !' इस प्रकार कहकर वह सासु के चरणों में गिर पड़ी। यह जानकर भानुमती और जिनदत्त को आश्चर्य के साथ महान् आनन्द हुआ।
वधू के मस्तक पर हाथ रखती हुई सास बोली- 'यह राजकुमारी रत्नवती मेरी पुत्र वधू है ? जब यह राउल के रूप में प्रच्छन्न थी, हमने इसको पहचाना तक नहीं था । अबला होते हुए भी इसने असाधारण पौरुष प्रदर्शित किया है । इसकी समयज्ञता अद्भुत है। अनेक बार हमने यह सोचा था कि अपना निकट का सम्बन्धी न होते हुए भी, तथा बिना प्रार्थना किए यह हमारी इतनी सेवा, परिचर्या करता है, अनन्य भक्तिभाव से हमारा संरक्षण करता है, यह क्यों ? पुत्र-वधू ! तेरी बुद्धि और धैर्य की कितनी प्रशंसा करें । तूने हमको यहां लाने के लिए कितने कष्ट सहे और विपद रूपी नदियों को पार किया है ? ऐसी सेवापरायण वधू को पाकर हम धन्य हो गए।' इस प्रकार कहती हुई उसने स्नेह से पुत्रवधू की पीठ थपथपाई, मस्तक को सूघा, तू पुत्र-पौत्रवती हो, ऐसे शुभ आशीर्वाद से उसे बधाई दी। जब यह बात नगर में फैली,
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