Book Title: Rayanwal Kaha
Author(s): Chandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
Publisher: Bhagwatprasad Ranchoddas

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Page 359
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सातवां उच्छ्वास कहा---'प्रभो । मैंने ऐसा कौनसा पाप किया था कि जिससे मुझे सीलह वर्षों तक माता-पिता का वियोग सहना पड़ा और धन-नाश का सामना करना पड़ा ?' आचार्य ने ज्ञान बल से कहा- 'एकबार अज्ञान के वशीभूत होकर तेरी आत्मा ने अपनी माता द्वारा दिए गए सुपात्रदान की क्रोध के आवेश में गर्दा की और उन मुनियों की निन्दा की, उसका फल यहां भीषण रूप से तुमने भोगा है। पश्चात् तुम्हारी मां ने यथार्थज्ञान कराया और दान का महात्म्य बताया, तब तुमने उस सुपात्र दान की अनुमोदना की । धर्म के प्रति तुम्हारी रुचि उत्पन्न हुई । उसके प्रभाव से तुमने पुनः सब कुछ प्राप्त कर लिया। ___ अपने पूर्व वृत्तान्त को सुनकर-रत्नपाल और उसकी पत्नी रत्नवती को परम वैराग्य हुआ । रत्नपाल ने सोचा--'इस जाज्वल्यमान संसार से मेरी आत्मा को शीघ्र ही निकालू। बुद्धि का यही परम फल है कि मैं अपनी आत्मा का उद्धार करूं।' यह सोचकर रत्नपाल विरक्त होगया । उसने घर का सारा भार पूत्र को देकर स्वयं रत्नवती के साथ भगवती दीक्षा स्वीकार कर दीक्षित हो गया। उसने पवित्र क्रिया की, निर्मल ध्यान किया, उज्ज्वल स्वाध्याय किया, तीव्र तप तपा और अप्रमत्त विहार किया। अनेक वर्षों तक संयम पर्याय का पालन कर दोनों ब्रह्मदेव लोक में देवरूप में उत्पन्न हुए । वहाँ से च्युत होकर वे महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे तथा समस्त दुःखों का अन्त करेंगे। रयणवाल कहा का हिन्दी-रूपान्तर समाप्त For Private And Personal Use Only

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