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सातवां उच्छ्वास
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तब वधू को देखने के लिए सभी बन्धु-बांधव आश्चर्य से वहां आए । रत्नपाल के अनुरूप रत्नवती को देखकर सब आनन्दित हए । सेठ के परम सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए स्वजन अपने-अपने घर की ओर चले गए । रत्नवती ने अपने विनय, विवेक, चातुर्य और दक्षता से परिजनों तथा गुरुजनों को मंत्रमुग्ध, सम्मोहित, कीलित और वशीभूत कर लिया। पुत्र और पुत्रवधू के मधुर व्यवहार और कार्यों की निपुणता के कारण माता-पिता ने अपने आपको भार उतरे हुए भार-वाहक की भांति हल्का अनुभव किया। रत्नपाल भी रत्नवती के साथ पंचेन्द्रिय जन्य विषय-सूखों का अनुभव करता हुआ यथा समय धार्मिक और व्यावहारिक कार्यों में संलग्न सुख से समय व्यतीत करने लगा। ___ एक बार जिनदत ने पूर्व रात्रि और अपररात्रि में धर्म-जागरण करते हुए सोचा-'अहो ! मैंने एक ही जन्म में सुख-दुःख की विचित्र शृखला देखी है और उसका अनुभव भी किया है, तो भी मेरा मन विरक्त क्यों नहीं हुआ ? मैं इन्द्रिय-विषयों के भोग से पराङ मुख क्यों नहीं हुआ ? बन्धुजनों में मेरा स्नेह शिथिल क्यों नहीं हुआ ? धन आदि के प्रति त्याग की भावना क्यों नहीं बढ़ी ? हा ! हा ! जो क्षण बीत जाते हैं, वे पुनः लौटकर नहीं आते । जो यौवन लावण्य और शारीरिक बल क्षीण हो जाता है, वह पुन: प्राप्त नहीं होता । अरे ! तुच्छ जीवन के लिए ऐसी चिन्ता ? कितनी दौड़-धूप ! कितना छल-कपट ! क्या रंक की तरह राजा को भी यह सब नहीं छोड़ना पड़ता इसमें क्या शंका है ? मृत्यु का नियम सर्वसाधारण और निश्चित है । उसके आगे किसी का विनय या बल प्रयोग सफल नहीं होता । इसलिए मैं अपना हित का चिन्तन और आचरण क्यों नहीं करूँ ? अहो ! आयुष्य के मूल्यवान् तीन भाग बीत गए । अब जो कुछ बचा है उसमें मुझे आत्म-कल्याणकारी धर्म कार्य, भवांतर में हित, सुख और क्षेम के लिए करना चाहिए।' इस प्रकार भावना करता हुआ विरक्त हुआ, वैराग्य को प्राप्त हुआ और बन्धन को तोड़ने के लिए तत्पर हुआ। उसने भानुमती के समक्ष अपनी भावना रखी । भानुमती ने भी पति के इस शुभ कार्य का अनुमोदन किया । और पति का अनुगमन करने के लिए उत्सुक हुई। अपने पुत्र आदि बन्धुजनों की आज्ञा लेकर जिनदत्त अपनी पत्नी के साथ, धर्मघोष आचार्य के पास प्रबजित हो गया। वे दोनों अनेक प्रकार की घोर तपस्या से शरीर को तपाते हुए, स्वाध्याय ध्यान से आत्मा को भावित करते हुए, अन्त में संलेखना सहित अनशन कर कल्प विमानवासी देव हुए।
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