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पांचवाँ उच्छ्वास
अहो ! पुद्गलजन्य सभी अच्छी परिणतियां पुण्यकर्म से प्रेरित होती हैं । पुण्य-बंध भी बिना शुभयोग के नहीं होता। जहां शुभ योग है वहां निश्चित ही निर्जरा है, ऐसा आगमिकों का कथन है । निर्जरा भी तप के बिना नहीं हो सकती । तप भी स्पष्ट धर्म का अंग है । अतः धर्म ही सभी सुखों का मूल है यह सुनिश्चित तस्व है। ___इधर दो राजपुरुष घोड़े पर बैठे हुए अपनी ओर शीघ्रता से आते दिखाई दिए । रत्नपाल ने शंकित होकर उन्हें देखा। ये कौन हैं ? मेरे समीप क्यों आ रहे हैं ? उसके मन में ऐसा कुतूहल उत्पन्न हुआ । शीघ्र ही वे इसके पास आए और अभिलाषा से पूछने लगे - "कुमारश्रेष्ठ ! क्या तुम्हारे पास दाडिम और धातकी (धाय) पुष्प हैं ? हमारे रुग्ण राजा की चिकित्सा के लिए उनकी आवश्यकता है । यदि तुम्हारे पास हो तो हमें अवश्य दो । यह महान मूल्यवान् अवसर है । समयज्ञ व्यक्ति को इसे नहीं खोना चाहिए" इस प्रकार कहकर दोनों उत्तर की प्रतीक्षा में मौन हो गए।
"अहो ! धूर्त व्यक्तियों की कला अकल्पनीय होती है । उनकी विद्या को कोई नहीं जान सकता। उनके तत्व को कोई नहीं समझ पाता। इन्होंने दाडिम और धातकी के पुष्पों की गुप्त बात कैसे जान ली ? दूसरों को ठगने
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