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रयणवाल कहाँ
वचनों को स्वीकार कर लिया। दोनों ने यह प्रतिज्ञा की कि इस रहस्य का भेद खुलने न पाए। इस प्रकार नाना प्रकार के आलाप-संलाप करते हुए दम्पती के कुछ दिन बीते । 'बहुत कार्य शेष है' --ऐसा स्मरण कर रत्नपाल ने शीघ्र ही अपने देश जाने का निश्चय किया । अवसर देखकर रत्नपाल ने अपने ससुर को सविनय निवेदन किया । अपने जामाता की देश लौटने की इच्छा जानकर राजा का चित्त उद्विग्न हो गया। पुत्री के विरह से उत्तप्त सास बहुत दुःखी एवं चिन्तातुर हो उठी। उसने कहा- "अरे ! ऐसी क्या जल्दी है ? यहाँ क्या दुःल है ? दामाद का मन उद्विग्न क्यों है ? सास ने अपने पुत्र के समान दामाद को अपने महलों में बुला भेजा और अनुरोधपूर्वक कहा-'जामात ! 'जाता हूँ' ऐसा कहते हुए आपकी जीभ लज्जित क्यों नहीं होती ? हल्दी के रंग की तरह शीघ्र ही मिट जाने वाली आपकी यह प्रीति ? अभी-अभी तो विवाह का कार्य संपन्न हुआ है । उसका श्रम (भार) भी अभी तक नहीं उतरा है और उसी बीच जाने की बात कह रहे हो ? धिक्कार है, धिवकार है ! प्रवासी व्यक्तियों का कैसा सौहार्द ? उनका क्या विश्वास ? उनका क्या संबंध ? उनके साथ मित्रता कर ऐसे ही संतप्त होना पड़ता है। अभी गमन सम्बन्धी एक भी अक्षर हमारे सामने नहीं बोलना है। यथा समय हम स्वयं उस विषय में सोचेंगे"-यह कहते हुए सास की आँखें डबडबा आई।
रत्नपाल ने निपुणता से कहा-'मैं अभी यहाँ और अधिक ठहरने के लिए समर्थ नहीं हूँ। अपने निश्चय के अनुसार पहले ही यहां समय अधिक हो चुका है। वहाँ मेरा अत्यन्त आवश्यक कार्य है । मेरे गए बिना वह सारा नष्ट हो जाएगा; इसलिए कृपा कर मुझे अकेले जाने की अनुमति दें। बाद में मैं यथाकाल शीघ्र ही आ जाऊंगा।'
एकाकी जाने की बात सुनकर राजा बहुत खिन्न हुआ । प्रवासी का क्या विश्वास ? वह पुनः लौट कर कब आए ? प्रवासी पति की क्या भाव परिणति होती है-यह कौन जानता है ? पति के प्रवास चले जाने पर रत्नवती की क्या स्थिति होगी ? इस प्रकार भविष्य के विषय में सोचने में दक्ष राजा ने कहा'जामात ! तुमने अच्छा निश्चय किया है । जाना है, वहाँ भी एकाकी जाना है'—यह बहुत अच्छा निश्चय है । यह बहुत ही सत्य उक्ति है कि-दूसरे दूसरे होते हैं और अपने-अपने ।' इसमें कोई संदेह नहीं है। यदि जाना है तो सुख से जाओ, कौन रोकता है। किन्तु कुछ समय तक यहां रहो । यह
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