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पांचवाँ उच्छ्वास
भेजा और पुत्री
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राजा कृष्णायन ने तत्काल राजकुल के ज्योतिषी को बुला afare के लिए तात्कालिक शुभलग्न पूछा ! ज्योतिषी ने पंचांग देखकर, अंगुलियों के पर्वो पर कुछ गिनते हुए तथा चन्द्र-सूर्य आदि स्वरों को ग्रहण करते हुए पक्ष के मध्य का एक शुभ दिन विवाह के लिए बताया। राजा ने विवाह के योग्य सारी सामग्री एकत्रित की। बाजे बजने लगे । सौभाग्यवती स्त्रियों ने मधुर स्वरों से मंगलगीत गाए । विवाह का प्राथमिक कृत्य प्रारम्भ हुआ । तोरण आदि की मनोहर रचना हुई, द्वारों पर अनेक मांगलिक पुष्पों के ढेर किए गए। सभी नागरिकों को यह ज्ञात हो गया कि रत्नपाल रत्नवती से विवाह करेगा । उन्होंने भी यथास्थान विविध प्रकार के कौतुक, मंगल आदि किए । विवाह का समय समीप आ गया । रत्नपाल के शरीर का उबटन किया गया । उसने वर के योग्य वस्त्र धारण किए। वह घोड़े पर चढ़ा हुआ अत्यन्त दीप्त हो रहा था । प्रत्येक चौराहे पर लोग वरयात्रा को बधाइयां दे रहे थे । वरयात्रा राजा के महलों में पहुँची । विवाह की सभी विधियों का निर्वाह हुआ । अपने सलज्ज नयनों से पति के मुख-चन्द्र को देखती हुई रत्नवती चकोरी की भांति मनमें अनुपमित सुख का अनुभव कर रही थी । राजा ने दहेज में अपरिमित सुवर्ण और रत्नराशि तथा अनेक विचित्र देशों से प्राप्त वस्तुएँ दी । तदन्तर अपनी पुत्री को उसे समर्पित किया । भानुमती का पुत्र रत्नपाल अपने श्वसुर द्वारा प्रदत्त प्रासाद में अपनी नवोढ़ा के साथ आया | विवाह हो जाने पर भी रत्नपाल के अन्तःकरण में आन्तरिक शांति का अनुभव नहीं हो रहा था । उसने सोचा -- 'जब तक मैं अपने दुःखी माता-पिता के हृदय को शान्त न कर दूँ तब तक राजकुमारी के साथ मेरे विवाह से क्या प्रयोजन ? जहाँ आवश्यक कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं; वहां सुख-क्रीड़ा से क्या करना है ?' ऐसा सोचकर उस विवेकी सुपुत्र ने उपने मन में यह निश्चित प्रतिज्ञा की, कि जब तक मैं अपने पूज्य माता-पिता को न देख लूँ तब तक अपनी प्रियतमा के साथ गृहस्थाश्रम के सुख का भोग नहीं करूँगा । "
नव प्रियतम का संगम पाने को उत्कंठित अपनी नवभार्या रत्नवती से रत्नपाल ने कहा - 'प्रियतमे । हमारे कुल की यह मर्यादा है कि जब तक नव विवाहित पति अपनी वधू के साथ कुलदेवता की पूजा नहीं कर लेता तब तक वह पंचेन्द्रियजन्य सुख-क्रीड़ा में प्रवृत्त नहीं हो सकता । लज्जावती रत्नवती ने 'आर्यपुत्र ही प्रमाण हैं -- ऐसा कहकर प्रसन्नता से पति के
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