Book Title: Rayanwal Kaha
Author(s): Chandanmuni, Gulabchandmuni, Dulahrajmuni,
Publisher: Bhagwatprasad Ranchoddas

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Page 331
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छठा उच्छ्वास विश्व की विचित्रता का वर्णन नहीं किया जा सकता। भव की भावना की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां क्या सुख है, क्या दुःख है ? क्या प्रिय है, क्या अप्रिय है ? कौन अपना है, कौन पराया है ? जहां भी गुड़ की डली दीख पड़ती है, वहां मक्खियों का समूह बिना निमंत्रण दिए ही एकत्रित हो जाता है । पानी से भरे तालाब में सभी दिशाओं से पक्षी स्वयं आ जाते हैं । अहो ! संसार स्वार्थप्रधान है, परमार्थ प्रधान नहीं । अरे, धवल दीखने वाला कार्य भी अन्तर की अभिलाषा से कुछ मलिन बना रहता है । धन्य हैं वे कुछ एक व्यक्ति जो परमार्थ भाव से जगत् की निष्काम सेवा करते हैं। 'अतुल समृद्धि का अर्जन कर रत्नपाल समुद्र तट पर आया है। यह सूनकर नागरिक तथा उसके बन्धू-जन वे सभी एकत्रित होकर प्रसन्न मुद्रा में रत्नपाल की अगवानी के लिए समुद्र तट पर जहाज के निकट आ पहुँचे । जय-विजय शब्दों में उसे बधाईयां देते हुए वे प्रिय वचनों से सम्बोधित करते हए कहने लगे- 'पुत्र ! प्रतिदिन मेघ की तरह हम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे थे । तुम जिनदत्त के कुलीन पुत्र हो । पिताजी का नाम तुमने उज्ज्वल किया है। मन्मन अन्दर से दुःखी था-किन्तु व्यवहार के लिए वह भी वहां आया । रत्नपाल ने भी सम्मुख आए हुए सभी व्यक्तियों को प्रसन्नता से For Private And Personal Use Only

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