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रयणवाल कहां
पश्चात वह अवसर को पाकर राजा के पास पहुंचा। राजा ने उसका सम्मान किया और आसन दिया। राजा ने बहुत बहुत आग्रह पूर्वक पूछा--'आपको क्या चाहिए ?' राउल ने कहा-'राजन् ! मैं यहां से लौट जाना चाहता हूँ। ऐसे संकुल नगर में मुनियों का मन नहीं लगता। भावावेश से गृहस्थ लोग मुनियों को भी गृहस्थी के प्रपंच में घसीट लेते हैं । मुनियों के लिए संसर्ग का त्याग बहुत आवश्यक है। जैसे गृहस्थ मुनियों के संसर्ग से वैराग्य को प्राप्त करते हैं, वैसे ही मुनि गृहस्थों के अधिक संसर्ग से संयम में शिथिल हो जाते हैं। इसलिए मैंने यह निश्चय किया है कि घने जंगल के किसी एकान्त स्थान में मुनियों के निवास योग्य मठ की स्थापना करनी चाहिए । दानशील नागरिकों ने मठ के योग्य काठ दिया है और वह काठ एकत्रित पड़ा है । इसलिए उनको ले जाने के लिए गाड़ियां चाहिए । दूसरे नागरिक गाड़ियां देने के लिए अत्यंत आग्रह कर रहे हैं किन्तु मैं आपसे वचन बद्ध हूँ कि राजा से ही याचना करनी है' यही चिन्तन कर यहां आया हूँ।
राउल को जाने के लिए तत्पर देखकर राजा खिन्न हो गया । मेरा परम उपकारी जारहा है, यह उचित नहीं, यह सोचकर राजा ने कहा-योगीश्वर ! जाने की यह कैसी शीघ्रता ? आपको यहां आए थोड़े ही दिन हुए हैं । जो नि:संग हैं, उनको आसंग की कैसे शंका ? हमारे जैसे पापी और मन्दभाग्य व्यक्ति भी आपकी संगति से अपनी आत्मा को पवित्र करते हैं, इसलिए मुनि जंगम तीर्थ होते हैं । गाड़ियों के लिए क्या मांगना ? आपको जितनी जितनी गाड़ियों की आवश्यकता हो ले जाइए। यह कौनसा बड़ा दान है ? आप कृपा कर दूसरी कोई चीज लें । अभी आपका जाना उचित नहीं है।' __राउल ने कहा-'मुनि इच्छा-प्रधान होते हैं। आग्रह-प्रधान नहीं । पवन का क्या आना और क्या जाना ? हमारे उपदेश का प्रतिपालन ही हमारे दर्शन हैं । बाद में भी क्या पुनः आने की संभावना नहीं है ? यह कहकर तत्काल राउल वहां से उठा, राजा को आशीर्वाद से संतुष्ट कर वहां से चल पड़ा। राजा ने उत्तम बैलों से युक्त अनेक शकट राउल को भेंट दिए । राउल ने नृप से शकट लेकर जहां चन्दन का ढेर था, वहां आ पहुंचा । गाड़ियों में गोशीर्ष चन्दन भरा और नगर से कुछ दूर जाकर उन सभी गाड़ियों को पुरिमताल के मार्ग पर लगा दिया। इस प्रकार सारा कार्य व्यवस्थित कर राउल जिनदत्त-भानुमती के पास आकर बोला---'मैं आज पुरिमतालपुर जा रहा हूँ । यहां रहते बहुत दिन बीत गए । आपकी क्या इच्छा है ?'
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