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६८
रणबाल कहाँ
से कष्ट नहीं सहे हैं ? हम भी अपने नगर जाने के लिए उत्सुक थे, किन्तु समाचार न मिलने पर कुछ सन्देह था । आज अनायास ही आपका यहां हुआ । पुत्र के समाचार प्राप्त हुए। अब हम वहां जाने की शीघ्रता करेंगे आगमन और पुत्र को उल्लास से देखेंगे ।
राउल ने वहां पड़े हुए एक काठ के टुकड़े को हाथ में लिया और चतुराई से उसे सूंघकर पूछा- 'मां यह क्या है ? यह क्या है ?
सरलता की प्रतिमूर्ति भानुमती ने कहा - 'यह कुछ नहीं है । काठ के भारे से गिरा हुआ एक टुकड़ा है । रत्नपाल के पिता जी प्रतिदिन जो सुखे काठ का भार लाते हैं, उसी का यह टुकड़ा है ।'
रहस्य को न जानने वाले की भांति राउल ने उस टुकड़े को झोली में डाल लिया और बोला- 'नगर में प्रतिदिन इस इन्धनभार को कौन लेता है ?"
भानुमती - 'नगर में महान् धनाढ्य धनदत्त नाम का एक स्नेही सेठ रहता है । वह प्रतिदिन एक ही मूल्य में उसे खरीद लेता है। कई वर्ष बीत गए। दूसरे स्थान पर जाने की आवश्यकता ही नहीं हुई ।'
राउल - ( मन ही मन में) धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है उस धूर्तशिरोमणि को, जो काठ के मूल्य में चन्दन लेकर सरल जिनदत्त को ठगता है ।
इतने में काठ का भारा बेचकर जिनदत्त भी वहां आ गया। हँसती हुई भानुमती दौड़कर अपने पति के सम्मुख गई और राउल द्वारा कथित प्रिय पुत्र का वृत्तान्त कह सुनाया । जिनदत्त का हृदय हर्ष विभोर हो उठा और वह विस्तार से पुत्र का वृत्तान्त सुनने के लिए राउल के पास आ बैठा । सारे समाचार पूछे। प्रश्नों के साथ-साथ धीरे-धीरे उसने प्रियपुत्र के समाचार कह डाले । जिनदत्त का हृदय पुत्र को देखने के लिए उत्सुक हो उठा। उसे अनुपम आनन्द की अनुभूति हुई ।
उपेक्षित भाव से राउल ने कहा - 'थोड़े दिनों के बाद ही मैं पुनः पुरिमताल जाने का इच्छुक हूँ । आपका गमन मेरे साथ ही हो जाएगा ।'
जिनदत्त ने कहा- 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा । साथ ही जाएंगे।' आपके साथ हम बहुत आनन्द का अनुभव करेंगे ।
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